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राजा भरतरी की कथा

राजा भरतरी की कथा

भरत सरिस को राम सनेही जगु जप राम रामु जप जेही ॥
भरत राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न किसकहिं नर नारी ॥

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श्रीभरतजी श्रीरामके ही स्वरूप हैं। वे व्यूहावतार माने जाते हैं और उनका वर्ण ऐसा है विश्वका भरण-पोषण करनेवाले होनेसे ही उनका नाम ‘भरत’ पड़ा। धर्मके आधारपर ही सृष्टि है। धर्म ही धराको धारण करता है। धर्म है, इसीलिये संसार चल रहा है। संसारकी तो बात जाने दीजिये, यदि एक गाँवमेंसे पूरा-पूरा धर्म चला जाय, वहाँ कोई धर्मात्मा किसी रूपमें न रहे तो उस गाँवका तत्काल नाश हो जायगा। भरतजीने धर्मके उसी धुरे-आदर्शको धारण किया । जॉन होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को ॥ राजा भरतरी की कथा

जन्मसे ही भरतलाल श्रीरामके प्रेमकी मूर्ति थे। वे सदा श्रीरामके सुख, उनकी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न रहते थे। मँपनका भान उनमें कभी आया ही नहीं। उन्होंने स्वयं कहा है

महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥

बड़ा ही संकोची स्वभाव था भरतलालका अपने बड़े भाईके सामने वे संकोचकी ही मूर्ति बने रहते थे। ऐसे संकोची, ऐसे अनुरागी, ऐसे भ्रातृभक्तभावमयको जब पता लगा कि माता कैकेयीने उन्हें राज्य देनेके लिये श्रीरामको वनवास दे दिया है, तब उनकी व्यथाका पार नहीं रहा। कैकेयीको उन्होंने बड़े कठोर वचन कहे। परंतु ऐसी अवस्थामें भी वे दयानिधि किसीका कष्ट नहीं सह पाते थे। जिस मन्थराने यह सब उत्पात किया था, उसीको जब शत्रुघ्नलाल दण्ड देने लगे, तब भरतजीने छुड़ा दिया। धैर्यके साथ पिताका और्ध्वदैहिक कृत्य करके, भरतजी श्रीरामको वनसे लौटानेके लिये चले। राज्यकी रक्षाका उन्होंने प्रबन्ध कर दिया था। अयोध्याका जो साम्राज्य देवताओंको भी लुभाता था, उस राज्यको, उस सम्पत्तिको भरतने तृणसे भी तुच्छ मानकर छोड़ दिया! वे बार-बार यह सोचते थे—’श्रीराम, माता जानकी और लक्ष्मण अपने सुकुमार चरणोंसे वनके कठोर मार्गमें भटकते होंगे।’ यही व्यथा उन्हें व्याकुल किये थी। वे भरद्वाजजीसे कहते हैं राजा भरतरी की कथा

राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं ॥

अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात ॥

एहि दुख दाहँ दहड़ दिन छाती । भूख न बासर नीद न राती वे स्वयं मार्गमें उपवास करते, कन्द-मूल खाते और भूमिपर शयन करते थे। साथमें रथ, अश्व, गज चल रहे थे; किंतु भरतलाल पैदल चलते थे। उनके लाल-लाल कोमल चरणों में फफोले पड़ गये थे; किंतु उन्होंने सवारी अस्वीकार कर दी। सेवकोंसे उन्होंने कह दिया –
रामु पयादेहि पायँ सिधाए । हम कहँ रथ गज बाजि बनाए ।
सिर भर जाउँ उचित अस मोरा । सब तें सेवक धरमु कठोरा ॥ राजा भरतरी की कथा

भरतका प्रेम, भरतका भाव, भरतकी विह्वलताका वर्णन तो श्रीरामचरितमानसके अयोध्याकाण्डमें ही देखने योग्य है। ऐसा अलौकिक अनुराग कि जिसे देखकर पत्थरतक पिघलने लगे! कोई ‘श्रीराम’ कह दे, कहीं श्रीरामके स्मृति चिह्न मिलें, किसीसे सुन पड़े श्रीरामका समाचार, वहीं, उसीसे भरत विह्वल होकर लिपट पड़ते हैं। सबसे उन्हें अविचल रामचरणानुराग ही माँगना है। चित्रकूट पहुँचकर वे अपने प्रभुके जब चरणचिह्न देखते हैं, तो राजा भरतरी की कथा

राजा भरतरी की कथा
राजा भरतरी की कथा

हरषहिं निरखि राम पद अंका । मानहुँ पारसु पायउ रंका ॥
रज सिर धरि हियै नयनन्हि लावहि । रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥

महर्षि भरद्वाजने ठीक ही कहा था

तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू । धरें देह जनु राम सनेहू ॥

चित्रकूटमें श्रीरामजी मिलते हैं। अयोध्याके समाजके पीछे ही महाराज जनक भी वहाँ पहुँच जाते हैं। महर्षि वसिष्ठ तथा विश्वामित्रजी और महाराज जनकतक कुछ कह नहीं पाते। सब लोग परिस्थितिकी विषमता देखकर थकित हो जाते हैं। सारी मन्त्रणाएँ होती हैं और अनिर्णीत रह जाती हैं। केवल जनकजी ठीक स्थिति जानते हैं। वे भरतको पहचानते हैं। एकान्तमें रानी सुनयनासे उन्होंने कहा- राजा भरतरी की कथा

परमारथ स्वारथ सुख सारे । भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे ॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू । मोहि लखि परत भरत मत एहू ।।
भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ ।

श्रीराम क्या आज्ञा दें? वे भक्तवत्सल हैं। भरतपर उनका असीम स्नेह है। वे भरतके लिये सब कुछ त्याग सकते हैं। उन्होंने स्पष्ट कह दिया राजा भरतरी की कथा

मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु ।

परंतु धन्य हैं भरतलाल ! धन्य है उनका अनुराग ! आराध्यको जो प्रिय हो, जिसमें श्रीरामको प्रसन्नता हो, जो करनेसे श्रीरघुनाथको संकोच न हो, वही उन्हें प्रिय है। उन्हें चाहे जितना कष्ट सहना पड़े; किंतु श्रीरामको तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिये । उनका अविचल निश्चय है राजा भरतरी की कथा

जो सेवक साहिबहि सँकोची। निज सुख चहड़ तासु मति पोची ॥

अतएव श्रीरामकी प्रसन्नताके लिये उनकी चरणपादुका लेकर भरत अयोध्या लौट आये। राजसिंहासनपर पादुकाएँ पधरायी गयीं। राम वनमें रहें और भरत राजसदनके सुख भोगें, यह सम्भव नहीं था। अयोध्यासे बाहर नन्दिग्राममें भूमिमें गड्ढा खोदकर कुशका आसन बिछाया उन्होंने । चौदह वर्ष वे महातापस बिना लेटे बैठे रहे। गोमूत्र यावकव्रत ले रखा था उन्होंने गायको जौ खिला देनेपर वह जौ गोबरमें निकलता है। उसीको गोमूत्रमें पकाकर वे ग्रहण करते थे। चौदह वर्ष उनकी अवस्था कैसी रही, यह गोस्वामी तुलसीदासजी बतलाते हैं राजा भरतरी की कथा

पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू जीह नामु जप लोचन नीरू ॥

भरतजीने इसी प्रकार वे अवधिके वर्ष बिताये। उनका दृढ़ निश्चय था

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना अधम कवन जग मोहि समाना॥

श्रीराम भी इसे भलीभाँति जानते थे। उन्होंने भी विभीषणसे कहा

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ॥

इसीलिये श्रीरघुनाथजीने हनुमान्जीको पहले ही भरतके पास भेज दिया था। जब पुष्पकसे श्रीराघवेन्द्र आये, उन्होंने अपने तपस्यासे कृश हुए, जटा बढ़ाये भाईको देखा। उन्होंने देखा कि भरतजी उनकी चरणपादुकाएँ मस्तकपर रखे चले आ रहे हैं। प्रेमविह्वल रामने भाईको हृदयसे लिपटा लिया । राजा भरतरी की कथा

तत्त्वत: भरत और राम नित्य अभिन्न हैं। अयोध्यामें या नित्य साकेतमें भरतलाल सदा श्रीरामकी सेवामें संलग्न, उनके समीप ही रहते हैं। राजा भरतरी की कथा

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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