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राजिया रा सोरठा अर्थसहित

राजिया रा सोरठा अर्थसहित

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कृपाराम बारहठ राजस्थानी कवि एवं नीतिकार थे। उन्होने ‘राजिया रा दूहा’ नामक नीतिग्रन्थ की रचना की। वे राव राजा देवी सिंह के समय में हुए थे। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

कवि कृपाराम जी तत्कालीन मारवाड़ राज्य के खराडी गांव के निवासी खिडिया शाखा के चारण जाति के जगराम जी के पुत्र थे। वे राजस्थान में शेखावाटी क्षेत्र में सीकर के राव राजा देवीसिंह के दरबार में रहते थे। पिता जगराम जी को नागौर के कुचामण के शासक ठाकुर जालिम सिंह जी ने जसुरी गांव की जागीर प्रदान की थी। वहीं इस विद्वान कवि का जन्म हुआ था। राजस्थानी भाषा, डिंगल और पिंगल के उतम कवि व अच्छे संस्कृज्ञ होने नाते उनकी विद्वता और गुणों से प्रभावित हो सीकर के राव राजा लक्ष्मण सिंह जी ने महाराजपुर और लछमनपुरा गांव इन्हे वि.स, 1847 और 1858 में जागीर में दिए थे। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

राजिया रा सौरठा

नीति सम्बन्धी राजस्थानी सोरठों में “राजिया रा सौरठा” सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। भाषा और भाव दोनों दृष्टि से इनके समक्ष अन्य कोई दोहा संग्रह नही ठहरता। संबोधन काव्य के रूप में शायद यह पहली रचना है। इन सौरठों की रचना राजस्थान के प्रसिद्ध कवि कृपाराम जी ने अपने सेवक राजिया को संबोधित करते हुए की थी। किंवदंति है कि अपने पुत्र विहीन सेवक राजिया को अमर करने के लिए ही विद्वान कवि ने उसे संबोधित करते हुए नीति सम्बन्धी दोहों की रचना की थी। माना जाता है कि कृपाराम रचित सोरठों की संख्या लगभग 500 रही है, लेकिन अब तक 170 दोहे ही सामने आये हैं. इनमें लगभग 125 प्रामाणिक तौर पर उनकी रचना हैं। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

राजिया कृपाराम का नौकर था। उसने कवि कृपाराम की अच्छी सेवा की थी। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर कवि ने उससे कहा कि मैं तेरा नाम अमर कर दूंगा। ऐसा भी प्रसिद्ध है कि राजिया के कोई संतान नहीं थी, जिससे वह उदास रहा करता था उसकी उदास आकृति देखकर कृपाराम ने उसकी उदासी का कारण पूछा। तब राजिया ने कहा “मेरे कोई संतान नहीं हैं और संतान के आभाव में मेरा वंश आगे नहीं चलेगा और मेरा नाम ही संसार से लुप्त हो जाएगा।” इस पर कवि ने उससे कहा- ‘तू चिंता मत कर तेरा नाम लुप्त नहीं होगा, मैं तेरा नाम अमर कर दूंगा।’ राजिया रा सोरठा अर्थसहित

फिर कवि कृपा राम ने नीति के दोहों की रचना की और उनके द्वारा उन्होंने रजिया का नाम सचमुच अमर कर दिया है। इन दोहों की रचना कवि ने रजिया को सम्बोधित करते हुए की। प्रत्येक दोहे के अन्त में ‘राजिया’ (हे राजिया ) सम्बोधन आता है। ये दोहे भी “राजिया के दोहे” या “राजिया रे सौरठे” नाम से ही प्रसिद्ध हुए। किसी कवि ने अपने नाम की बजाय अपने सेवक का नाम प्रतिष्ठित करने के लिए कृति रची हो, इसका केवल यही उदहरण है। साहभार

राजिया रा सोरठा 

अड़वां खड़वां आथ, सुदतारा विलसै सदा।
सूमां चलै न साथ, राई जितरी, राजिया।।1।।

भावार्थः-1 (दानशील पुरुषों के पास अरबों-खरबों की संपति होती है। वे उसको संचित कर नही रख सकते जबकि उसका सदउपयोग करते है। अपने व दूसरो के लिए खर्च करते है। दूसरी ऒर कंजूस उसका संचय करके रक्षा करते है न ही स्वयं उपयोग करते है तथा ना ही दूसरों केलिए खर्च करते है। उनके मरने के बाद वो संपति यही पड़ी रहती है साथ में कुछ भी नही आता है) राजिया रा सोरठा अर्थसहित

चावळ जितरी चोट, अति सावळ कहै।
खोटै मन रौ खोट,रहै चिमकतौ राजिया।।2।।

भावार्थः-2 कोई व्यक्ति भले ही सहज भाव प्रकट क्यो न करे परन्तु हे राजिया ! उसके मन मे छिपे हुए खोट पर यदि जरासी चोट पहुंचती है, तो वह चौंकने लगता है। (अपराधी मन सदैव आशंकित रहता है )

अरहट-कूप तमाम, ऊमर लग न हुवै इतौ।
जळहर एकी जाम, रेळै सब जग, राजिया ।।3।।

भावार्थ:-3 कुंए का अरहट सारी उम्र चलता रहे तो भी इतना पानी नहीं निकाल सकता । दूसरी ओर, बादल एक ही पहर बरसकर इतना पानी बरसा देता है कि सारी पृथ्वी डूब जाय, (पानी से भर जाय) राजिया रा सोरठा अर्थसहित

अवनी रोग अनेक, ज्यांरा विध कीना जतन ।
इण परक्रिति री एक, रची न ओखद, राजिया ।।4।।

भावार्थ:-4 पृथ्वी पर अनेक बीमारियां हैं। विधाता ने उन सब के इलाज बनाये हैं, पर इस प्रकृति का मानव स्वभाव का इलाज कर सके, ऐसी एक भी दवा नहीं बनाई ।

अवसर पाय अनेक, भावैं कर भूंडी भली।
अंत समै गत एक, राव-रंक री, राजिया।।5।।

भावार्थ :-5 जीवन में भलाई और बुराई करने के अनेक अवसर मिलते हैं। उन्हें पाकर चाहे भलाई करो, चाहे बुराई: अंत में जाकर सबकी एक ही गति होती है-सबको मरना पड़ता है चाहे राजा हो, चाहे कंगाल हो।

अवसर मांय अकाज, सामो बोल्यां सांपजै।
करणों जे सिध काज, रीम न कीजै, राजिया।।6।।

भावार्थ:-6 काम बनने का अवसर आने पर सामने बोलने से अनिष्ट हो जाता है, अर्थात् काम बिगड़ जाता है। अत: यदि काम को संपन्न करना हो तो सामने वाले के अनुचित वचन सुनकर भी क्रोध नहीं करना चाहिए, क्रोध को पीकर चुप रहना चाहिए।

असली री औलाद, खून करयां न करै खता।
वाहै वद-वद वाद, रोढ़ दुलातां राजिया ।।7।।

भावार्थ:-7 शुद्ध कुल में उत्पन्न पुरूष अपराध करने पर भी बदले की भावना से अपकार नहीं करते, पर वर्णसंकर दोगले हठ कर-करके खच्चरों की भांति दुलत्तियां चलाते है अर्थात् बदले में हानि पहुंचाते हैं। खच्चर घोड़े और गधी के संयोग से पैदा होता है, इसलिए वर्णसंकर अर्थात् दोगला होता है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

अहळा जाय उपाय, आछोड़ी करणी अवर।
दुसट किरणी ही दाय, राजी हुवै न, राजिया।।8।।

भावार्थ:-8 दुष्टों को प्रसन्न अनुकूल करने के लिए कितने ही प्रयत्न क्यों न किये जायं और उनके साथ कितनी ही भलाइयां क्यों न की जायं, वे किसी प्रकार प्रसन्न अनुकूल नहीं होते । किये हुए सारे उपाय व्यर्थ हो जाते है।

आगै मिलै न अन्न, रंक पछै पावै रिजक।
मैला ज्यां रा मन्न, रहै सदा ही, राजिया।।9।।

भावार्थ:-9 अनेक कंगाल मनुष्य धन के ही कंगाल नहीं होते, पर मन के भी कंगाल होते हैं। उनकी मनोवृत्ति बहुत ओछी होती है। ऐसी ओछी मनोवृत्ति वाले पुरूष भाज्यवशात् आगे चलकर बहुत धनी हो जाते हैं तब भी उनकी मनोवृत्ति में कोई अंतर नहीं पड़ता, वह वैसी ही ओछी रहती हैं – उनके मन का ओछापन नहीं जाता। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

आछा जुध अणपार, धार खगां सनमुख धसै।
भोगी होई भरतारी, रसा जिके नर, राजिया।।10।।

भावार्थ:-10 अनेक बड़े युद्धों में जो तलवारों की धारों के सामने बढ़ते हैं और निर्भीक होकर शस्त्रों के प्रहार झेलते हैं, वे ही मनुष्य पृथ्वी के स्वामी बनकर पृथ्वी को भोगते हैं।

आछा हुव्र उपराव्र, हिया-फूट ठाकर हुव्र।
जडिय़ा लोह-जड़ाव्र रतन न फाबै, राजिया ।।11।।

भावार्थ:-11 रत्न तभा शोभा देते हैं जब सोने में जड़े हों। इसी प्रकार गुणवान सरदार तभी शोभा देते हैं जब उनका अपने अनुरूप वैसे ही गुणवान ठाकुर स्वामी मिलें । यदि सरदार गुणवान हों और ठाकुर निर्बुद्धि हो तो वो शोभा नहीं देते, जैसे लोहे की जड़ाई में जड़े हुए रत्न शोभा नहीं देते।

आछोड़ां ढिग आय, आछोड़ा भैळा हुवै।
यूं सागर में जाय, रळै नदी-जळ, राजिया।।12।।

भावार्थ:-12 भले आदमियोंं रे पास भले आदमी एकत्र होते हैं, जैसे नदियों के जल समुद्र में जाकर मिलते हैं।

आछो मान अमाव मत-हीणा केई मिनख।
पुटिया की ज्यों पांव राखै ऊपर, राजिया।।13।।

भावार्थ:-13 कुछ लोग ऐसे निर्बुद्धि होते हैं कि यदि उन्हें कभी बहुत अधिक ऊंचा सम्मान मिल जाता है तो वे अभियान से फूल जाते हैं और अपने को बहुत महत्व देने लगते हैं। वे ऐसा बरताव करने लगते हैं, मानों बहुत महत्वशाली पुरूष हों। पुटिया पक्षी की भांति वे भी अपने पैरों को ऊपर की और रखते हैं। आवै नहीं इलोळ। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

कुट्ळ निपट नाकार, नीच कपट छोङे नहीं।
उत्तम करै उपकार,रुठा तुठा राजिया।।14।।

भावार्थः-14 कुटिल और नीच व्यक्ति अपनी कुटिलता और नीचता कभी नही छोड़ सकते, जबकि हे राजिया ! उत्तम कोटि के व्यक्ति चाहे रुष्ट हो या तुष्ट, वे हमेशा दूसरो का भला ही करेंगे।

सुख मे प्रीत सवाय, दुख मे मुख टाळौ दियै।
जो की कहसी जाय, रांम कचेडी राजिया।।15।।

भावार्थः-15 जो लोग सुख में तो खूब प्रीत दिखाते है किंतु दुःख पड़ने पर मुंह छिपा लेते है, हे राजिया ! वे ईश्वर की अदालत में जाकर क्या जबाब देंगे।

समझणहार सुजांण, नर मौसर चुकै नहीं।
औसर रौ अवसांण,रहै घणा दिन राजिया।।16।।

भावार्थः-16 समझदार एव विवेकशील व्यक्ति कभी हाथ लगे उचित अवसर को खोता नही,क्यों कि हे राजिया ! अवसर पर किया गया अहसान बहुत दिनो तक याद रहता है।

किधोडा उपकार, नर कृत्घण जानै नही।
लासक त्यांरी लार,रजी उडावो राजिया।।17।।

भावार्थः-17 जो लोग कृत्धन होते है, वे अपने पर किए गए दूसरो के उपकार को कभी नही मानते,इसलिए,हे राजिया ! ऐसे निकृष्ट व्यक्तियों के पीछे धुल फेंको।

मुख ऊपर मिठियास, घट माहि खोटा घडे।
इसडा सूं इकलास, राखिजे नह राजिया।।18।।

भावार्थः-18 जो मनुष्य मुंह पर तो मीठी-मीठी बाते करते है,किंतु मन ही मन हानि पहुँचाने वाली योजनायें रचते है,ऐसे लोगो से, हे राजिया ! कभी मित्रता नही रखनी चाहिए। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

अहळा जाय उपाय,आछोडी करणी अहर।
दुष्ट किणी ही दाय, राजी हुवै न राजिया।।19।।

भावार्थः-19 दुष्ट व्यक्ति के साथ कितना ही अच्छा व्यवहार और उपकार क्यों न किया जाए,वह निष्फल ही होगा,क्यों कि हे राजिया ! ऐसे लोग किसी भी तरह प्रसन्न नही होते।

गुण सूं तजै न गांस,नीच हुवै डर सूं नरम।
मेळ लहै खर मांस, राख़ पडे जद राजिया।।20।।

भावार्थः-20 नीच मनुष्य भलाई करने से कभी दुष्टता नही छोड़ता,वह तो भय दिखाने से ही नम्र होता है, जिस प्रकार,हे राजिया ! गधे का मांस राख़ डालने से ही सीझता (पकता ) है।

दुष्ट सहज समुदाय,गुण छोडे अवगुण गहै।
जोख चढी कुच जाय, रातौ पीवै राजिया।।21।।

भावार्थः-21 दुष्टों का समुदाय गुण छोड़ कर अवगुण ग्रहण करता है, क्योंकि यह उनका सहज स्वभाव है,जिस प्रकार,हे राजिया ! जोंक स्तन पर चढ़ कर भी दूध की जगह रक्त ही पीती है।

केई नर बेकार,बड करतां कहताँ बळै।
राखै नही लगार,रांम तणौ डर राजिया।।22।।

भावार्थः-22 कई लोग किसी की कीर्ति करने अथवा कहने से व्यर्थ ही जलने लगते है | ऐसे ईर्ष्यालु व्यक्ति तो परमात्मा का भी किंचित भय नही रखते। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

चुगली ही सूं चून, और न गुण इण वास्तै।
खोस लिया बेखून,रीगल उठावे राजिया।।23।।

भावार्थः-23 जिन लोगो के पास चुगली करने के अलावा जीविकोपार्जन का अन्य कोई गुण नही होता,ऐसे लोग ठिठोलियाँ करते-करते ही निरपराध लोगो की रोजी रोटी छीन लेते है।

आछो मांन अभाव मतहीणा केई मिनख।
पुटियाँ कै ज्यूँ पाव , राखै ऊँचो राजिया।।24।।

भावार्थः-24 कई बुद्धिमान व्यक्तियों को सम्मान मिलने पर वे पचा नही पाते और उस अ-समाविष्ट स्थिति मे अभिमान के कारण पुटियापक्षी की तरह सदैव अपने पैर ऊपर (आकाश) की और किए रहते है।

गुण अवगुण जिण गांव, सुणै न कोई सांभळै।
उण नगरी विच नांव , रोही आछी राजिया।।25।।

भावार्थः-25 जहाँ गुण अवगुण का न तो भेद हो और न कोई सुनने वाला हो , ऐसी नगरी से तो,हे राजिया ! निर्जन वन ही अच्छा है।

कारज सरै न कोय, बळ प्राकम हिम्मत बिना।
हलकाऱ्या की होय, रंगा स्याळां राजिया।।26।।

भावार्थः-26 बल पराकर्म एवं हिम्मत के बिना कोई भी कार्य सफल नही होता | हे राजिया रंगे सियारों की तरह ललकारने से भी क्या होता है।

मिले सिंह वन मांह, किण मिरगा मृगपत कियो।
जोरावर अति जांह, रहै उरध गत राजिया।।27।।

भावार्थः-27 सिंह को वन मे किन मृगो ने मृगपति घोषित किया था। जो शक्तिशाली होता है उसकी उर्ध्वगति स्वत: हो जाती है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

अपने सेवक राजिया को संबोधित करते कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित नीति सम्बन्धी दोहे।

खळ धूंकळ कर खाय, हाथळ बळ मोताहळां।
जो नाहर मर जाय , रज त्रण भकै न राजिया।।28।।

भावार्थः-28 सिंह युद्ध में अपने पंजों से शत्रु हाथियों के मुक्ताफल-युक्त मस्तक विदीर्ण कर ही उन्हें खाता है। वह चाहे भूख से मर जाय,किंतु घास कभी नही खायेगा।

नभचर विहंग निरास, विन हिम्मत लाखां वहै।
बाज त्रपत कर वास , रजपूती सूं राजिया।।29।।

भावार्थः-29 आकाश में लाखों पक्षी हिम्मत के बिना (भूख के मारे) उड़ते रहते है,किंतु हे राजिया ! बाज अपने पराक्रम से ही पक्षियों का शिकार कर तृप्त जीवन जीता है।

घेर सबल गजराज , कहर पळ गजकां करै।
कोसठ करकम काज, रिगता ही रै राजिया।।30।।

भावार्थः-30 सिंह बलवान हाथी को घेर कर और मार कर उसके मांस का आहार करता है किंतु हे राजिया ! उसी वक्त गीदड़ हड्डियों के ढांचे के लिए ही ललचाते रहते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

आछा जुध अणपार, धार खगां सनमुख धसै।
भोगे हुवे भरतार ,रसा जिके नर राजिया।।31।।

भावार्थः-31 जो लोग अनेक बड़े युद्धों में तलवारों की धारों के सन्मुख निर्भीक होकर बढ़ते है,वे ही वीर भरतार बनकर इस भूमि को भोगते है।

दांम न होय उदास, मतलब गुण गाहक मिनख।
ओखद रो कड़वास, रोगी गिणै न राजिया।।32।।

भावार्थः-32 गुणग्राहक मनुष्य अपनी लक्ष्य-सिद्धि के लिए किसी भी कठिनाई से निराश नही होता , ठीक उसी तरह, जिस तरह हे राजिया ! रोगी व्यक्ति औषध के कड़वेपन की परवाह नही करता।

गह भरियो गजराज, मह पर वह आपह मतै।
कुकरिया बेकाज, रुगड़ भुसै किम राजिया।।33।।

भावार्थः-33 मस्त गजराज तो अपनी मर्जी से प्रथ्वी पर हर जगह विचरण करता है किंतु हे राजिया ! ये मुर्ख कुत्ते व्यर्थ ही उसे देखकर क्यों भोंकते है।

असली री औलाद, खून करयां न करै खता।
वाहै वद वद वाद, रोढ़ दुलातां राजिया।।34।।

भावार्थः-34 शुद्ध कुल में जन्म लेना वाला तो अपराध करने पर भी झगडा नही करता,जबकि अकुलीन व्यक्ति अकारण ही झगडे करता रहता है ठीक उसी तरह जिस तरह हे राजिया ! खच्चर व्यर्थ ही बढ-बढ कर दुलत्तियाँ झाड़ता रहता है।

ईणही सूं अवदात, कहणी सोच विचार कर।
बे मौसर री बात, रूडी लगै न राजिया।।35।।

भावार्थः-35 सोच-समझकर कही जाने वाली बात ही हितकरणी होती है, हे राजिया ! बिना मौके कही गई बात किसी को अच्छी नही लगती है।

बिन मतलब बिन भेद, केई पटक्या रांम का।
खोटी कहै निखेद, रांमत करता राजिया।।36।।

भावार्थः-36 कई राम के मारे दुष्ट लोग ऐसे होते है, जो बिना मतलब और बिना विचार किए हँसी-ठिठोली में ही किसी अप्रिय एवं अनुचित बाते कह देते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

पल-पल में कर प्यार,पल-पल में पलटे परा।
ऐ मतलब रा यार, रहै न छाना राजिया।।37।।

भावार्थः-37 जो लोग पल-पल में प्यार का प्रदर्शन करते है और पल-पल में बदल भी जाते है, हे राजिया ! ऐसे मतलबी यार दोस्त छिपे नही रह सकते वे तुंरत ही पहचाने जाते है।

सार तथा अण सार, थेटू गळ बंधियों थकौ।
बड़ा सरम चौ भार, राळयं सरै न राजिया।।38।।

भावार्थः-38 परम्परा के रूप में जो भी सारयुक्त अथवा सारहीन तत्व हमारे गले बंध गया है, पूर्वजों की लाज-मर्यादा के उस भार को फेंकने से काम नही चलता उसे तो निभाना ही पड़ता है।

पहली कियां उपाव, दव दुस्मण आमय दटे।
प्रचंड हुआ विस वाव , रोभा घालै राजिया।।39।।

भावार्थः-39 अग्नि,दुश्मन और रोग तो आरंभ में ही दबाने से दब जाते है ,लेकिन हे राजिया ! विष (शत्रुता एवं रोग) और वायु प्रचंड हो जाने पर सदा कष्ट देते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

एक जतन सत एह , कुकर कुगंध कुमांणसां।
छेड़ न लीजे छेह, रैवण दीजे राजिया।।40।।

भावार्थः-40 कुत्ता,दुर्गन्ध और दुष्टजन से बचने का एक मात्र उपाय यही है कि उन्हें छेड़ा न जाय और ज्यों का त्यों पड़ा रहने दिया जाय।

नरां नखत परवाण, ज्याँ उंभा संके जगत।
भोजन तपै न भांण, रावण मरता राजिया।।41।।

भावार्थः-41 मनुष्य की महिमा उसके नक्षत्र से होती है, इसलिय उसके जीते जी संसार उससे भय खाता है | रावण जैसे प्रतापी की मृत्यु होते ही सूर्य ने उसके रसोई घर में तपना (भोजन बनाना) बंद कर दिया था।

हीमत कीमत होय, विन हीमत कीमत नही।
करै न आदर कोय, रद कागद ज्यूँ राजिया।।42।।

भावार्थः-42 हिम्मत से ही मनुष्य का मूल्यांकन होता है,अतः पुरुषार्थहीन व्यक्ति का कोई महत्व नही होता। हे राजिया ! साहस रहित व्यक्ति रद्दी कागज की भांति होता है जिसका कोई भी आदर नही करता।

देखै नही कदास, नह्चै कर कुनफ़ौ नफ़ौ।
रोळां रो इकळास, रौळ मचावै राजिया।।43।।

भावार्थः-43 जो लोग हानि-लाभ की और कभी देखते नही,ऐसे विचारहीन लोगों से मेल-मिलाप अंततः उपद्रव ही पैदा करता है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

कूड़ा कुड़ प्रकास, अण हुती मेलै इसी।
उड़ती रहै अकास, रजी न लागै राजिया।।44।।

भावार्थः-44 झूठे लोग ऐसी अघटित बातों का झूटा प्रचार करते है कि वे आकाश में ही उड़ती रहती है। हे राजिया ! धरती की रज तो उन्हें छू भी नही पाती।

उपजावे अनुराग, कोयल मन हरकत करै।
कड्वो लागे काग, रसना रा गुण राजिया।।45।।

भावार्थः-45 कोयल लोगो के मन में प्रेम,अनुराग उत्पन्न कर आनन्दित करती है, जबकि कौवा सब को कड़वा लगता है। हे राजिया ! यह सब वाणी का ही परिणाम है।

भली बुरी री भीत, नह आणै मन में निखद।
निलजी सदा नचीत, रहै सयांणा राजिया।।46।।

भावार्थः-46 नीच व्यक्ति अपने मन में भली और बुरी बातों का तनिक भी भय नही लाते। हे राजिया ! वे निर्ल्लज तो सयाने बने हुए सदैव निश्चिंत रहते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

ऐस अमल आराम, सुख उछाह भेळ सयण।
होका बिना हगांम, रंग रौ हुवे न राजिया।।47।।

भावार्थः-47 ऐस आराम,अफीम रस की मान मनुहार और मित्र मंडली के साथ आनंद उत्सव के समय हे राजिया ! यदि
हुक्का नही हो,तो मजलिस में रंग नही जमता।

मद विद्या धन मान, ओछा सो उकळै अवट।
आधण रे उनमान , रहैक वीरळा राजिया।।48।।

भावार्थः-48 विद्या, धन और प्रतिष्ठा पाकर ओछे आदमी अभिमान में उछलने लग जाते है। आदहन की भांति मर्यादा में यथावत रहने वाले लोग तो विरले ही होते है।

तुरत बिगाड़े तांह , पर गुण स्वाद स्वरूप नै।
मित्राई पय मांह , रीगल खटाई राजिया।।49।।

भावार्थः-49 जिस प्रकार दूध में खटाई पड़ने पर उसके गुण,स्वाद और स्वरूप में विकृति आ जाती है, उसी प्रकार हे राजिया ! मसखरियों से मन मन फटकर मित्रता शीघ्र ही नष्ट हो जाती है।

सब देखै संसार, निपट करै गाहक निजर।
जाणै जांणणहार, रतना पारख राजिया।।50।।

भावार्थः-50 यों तो सभी लोग ग्राहक की नजर से वस्तुओ को देखते है किंतु उनके गुण दोषों की पहचान हर एक व्यक्ति नही कर सकता। हे राजिया ! रत्नों की परख तो केवल जौहरी ही कर सकता है।

मूरख टोळ तमांम घसकां राळै अत घणी।
गतराडो गुणग्रांम, रांडोल्या मझ राजिया।।51।।

भावार्थः-51 मूर्खों की मंडली में ही मूढ़ व्यक्ति बहुत अधिक गप्पे हांकता रहता है, जैसे रांडोल्यों में हिजड़ा भी गुणवान समझा जाता है।

हुवै न बुझणहार, जांणै कुण कीमत जठै।
बिन गाहक ब्योपार, रुळयौ गिणैजै राजिया।।52।।

भावार्थः-52 जहाँ पर कोई पूछने वाला भी न हो, वहां उस व्यक्ति या वस्तु का मूल्य कौन जानेगा ? निश्चय ही बिना ग्राहक के व्यापार चौपट हो जाता है। हे राजिया ! इसी तरह गुणग्राहक के बिना गुणवान की कद्र नही हो सकती।

गुणी सपत सुर गाय, कियौ किसब मुरख कनै।
जांणै रुनौ जाय, रन रोही में राजिया।।53।।

भावार्थः-53 गायक ने गीत के सातों स्वरों को गाकर मूर्ख व्यक्ति के सामने अपनी कला का प्रदर्शन किया, किंतु उसे ऐसा लगा,मानो वह सुने जंगल में गाकर रोया हो | (अ-रसिक एवं गुणहीन व्यक्ति के संमुख कला का प्रदर्शन अरण्य रोदन के समान ही होता है)। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

पय मीठा पाक, जो इमरत सींचीजिए।
उर कड़वाई आक, रंच न मुकै राजिया।।54।।

भावार्थः-54 आक भले ही मीठे दूध अथवा अमृत से सींचा जाय, किंतु वह अपने अन्दर का कड़वापण किंचित भी नही छोड़ता। इसी प्रकार हे राजिया ! कुटिल व्यक्ति के साथ कितना ही मधुर व्यवहार किया जाए वह अपनी कुटिलता नही छोड़ता।

रोटी चरखो राम, इतरौ मुतलब आपरौ।
की डोकरियां कांम, रांम कथा सूं राजिया।।55।।

भावार्थः-55 बूढीयाओं को तो रोटी,चरखा और राम-भजन, केवल इन्ही से सरोकार है। हे राजिया! उन्हें राजनितिक चर्चाओं से भला क्या लेना देना।

जिण मारग औ जात, भुंडी हो अथवा भली।
बिसनी सूं सौ बात, रह्यो न जावै राजिया।।56।।

भावार्थः-56 व्यसनी पुरूष जिस मार्ग पर चलता है,चाहे वह वस्तु बुरी हो या भली वह किसी भी स्थिति में उसे छोड़ नही सकता,यह सौ बातों की एक बात है।

कारण कटक न कीध, सखरा चाहिजई सुपह।
लंक विकट गढ़ लीध, रींछ बांदरा राजिया।।57।।

भावार्थः-57 युद्ध विजय के लिए बड़ी सेना की अपेक्षा कुशल नेतृत्व ही मुख्य कारण होता है। हे राजिया ! श्रेष्ठ संचालक के कारण लंका जैसे अजेय दुर्ग को रींछ और बंदरों ने ही जीत लिया।

आवै नही इलोळ बोलण चालण री विवध।
टीटोड़यां रा टोळ, राजंहस री राजिया।।58।।

भावार्थः-58 महान व्यक्तियों के साथ रहने मात्र से ही साधारण व्यक्तियों में महानता नही आ सकती। जैसे राजहंसों का संसर्ग पाकर भी टिटहरियों का झुण्ड हंसो की सी बोल-चाल नहीं सीख पाता।

मणिधर विष अणमाव, मोटा नह धारे मगज।
बिच्छू पंछू वणाव, राखै सिर पर राजिया।।59।।

भावार्थः-59 बड़े व्यक्ति कभी अभिमान नही किया करते। सांप में बहुत अधिक जहर होता है, फ़िर भी उसे घमंड नही होता, जबकि बिच्छू कम जहर होने पर भी अपनी पूंछ को सिर पर ऊपर उठाये रखता है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

जग में दीठौ जोय, हेक प्रगट विवहार म्हें।
काम न मौटो कोय, रोटी मोटी राजिया।।60।।

भावार्थः-60 प्रत्यक्ष व्यवहार में हमने तो इस संसार में यही देखा है, कि काम बड़ा नही होता, रोटी बड़ी होती है। हे राजिया ! सारी भागदौड ही एक जीविका के लिए होती है।

कहणी जाय निकांम, आछोड़ी आणी उकत।
दांमा लोभी दांम , रन्जै न वांता राजिया।।61।।

भावार्थः-61 अच्छी-अच्छी उक्तियों के साथ कही गई सभी बाते लोभी व्यक्तियों के लिए तो निरर्थक है। सच है, धन का लोभी धन से ही प्रसन्न होता है बातों से नही। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

हुनर करो हजार,सैणप चतुराई सहत।
हेत कपट विवहार, रहै न छाना राजिया।।62।।

भावार्थः-62 चाहे हजारों तरह की चालाकी और चतुराई क्यों न की जाय , किंतु हे राजिया ! प्रेम और कपट का व्यवहार छिपा नही रहता।

लह पूजा गुण लार, नर आडम्बर सूं निपट।
सिव वन्दै संसार , राख लगायाँ राजिया।।63।।

भावार्थः-63 गुण के पीछे पूजा होती है , न कि आडंबर से, हे राजिया ! भस्मी लगाये रहने पर भी शिव की वंदना सारा संसार करता है।

लछमी कर हरि लार, हर नै दध दिधौ जहर।
आडम्बर इकधार, राखै सारा राजिया।।64।।

भावार्थः-64 समुद्र ने लक्ष्मी तो विष्णु को दी और जहर महादेव को दिया। सच है आडम्बर का विशेष लिहाज सभी रखते है।

सो मूरख संसार, कपट ञिण आगळ करै।
हरि सह ञांणणहार , रोम-रोम री राजिया।।65।।

भावार्थः-65 संसार में वे व्यक्ति मुर्ख है, जो भगवान के सामने कपट व्यवहार करते है, जो रोम-रोम की सब बाते जानने वाला होता है।

औरुं अकल उपाय, कर आछी भुंडी न कर।
जग सह चाल्यो जाय, रेला की ज्यूँ राजिया।।66।।

भावार्थः-66 और भी बुद्धि लगाकर भला करने का उपाय करो, किसी का बुरा मत करो। यह संसार तो पानी के रेले की तरह निरंतर बहता चला जा रहा है ( क्षणभंगुर जीवन की सार्थकता तो सत्कर्मो से ही है )। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

औसर पाय अनेक,भावै कर भुंडी भली।
अंत समै गत एक , राव रंक री राजिया।।67।।

भावार्थः-67 जीवन में अनेक अवसर पाकर मनुष्य चाहे तो भलाई करे,चाहे बुराई, किंतु हे राजिया ! अंत में तो सब की एक ही गति होती है मृत्यु, चाहे राजा हो या रंक।

करै न लोप, वन केहर उनमत वसै ।
करै न सबळा कोप, रंकां ऊपर राजिया।।68।।

भावार्थः-68 जंगल में उन्मत शेर बसता है,किंतु वह लोमडियों का समूल नाश नही करता, क्योंकि हे राजिया ! शक्तिशाली कभी गरीब पर कोप नही करते। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

पहली हुवै न पाव, कोड़ मणा जिण में करै।
सुरतर तणौ सुभाव, रंक न जाणै राजिया।।69।।

भावार्थः-69 जहाँ पहले पाव भर अनाज भी नही होता था,वहां करोड़ों मन कर देता है। कल्पवृक्ष के स्वभाव को रंक व्यक्ति नही जान सकता। (उदारता और दयालुता तो स्वाभाविक गुण होते है )।

पाल तणौ परचार, किधौ आगम कांम रौ।
वरंसतां घण वार , रुकै न पाणी राजिया।।70।।

भावार्थः-70 पानी को रोकने के लिए पाल बाँधने का कार्य तो अग्रिम ही लाभदायक होता है। घने बरसते पानी को रोकना सम्भव नही, यह कार्य तो पहले ही होना आवयश्क है।

कांम न आवै कोय, करम धरम लिखिया किया।
घालो हींग घसोय, रुका विचाळै राजिया।।71।।

भावार्थः-71 जिस पन्ने पर लिखी हुयी कर्म-धर्म की बाते यदि कुछ काम नही आती तो हे राजिया ! उस रुक्के में भले ही हींग की पुडिया बांधो, क्योकि वह तो रद्दी कागज के समान है।

भाड़ जोख झक भेक, वारज में भेळा वसै।
इसकी भंवरो एक,रस की जांणे राजिया।।72।।

भावार्थः-72 बड़ा मेंडक जोंक मछली और दादुर सभी जल में कमल के अन्दर ही रहते है,किंतु कमल के रस का महत्व तो केवल रसिक भ्रमर ही जनता है ( गुण को गुणग्राही और रस को रसज्ञ ही जान सकता है।

मानै कर निज मीच, पर संपत देखे अपत।
निपट दुखी व्है नीच , रीसां बळ-बळ राजिया।।73।।

भावार्थः-73 नीच व्यक्ति जब दुसरे की सम्पति को देखता है तो उसे अपनी मृत्यु समझता है, इसलिए ऐसा निकृष्ट व्यक्ति मन में जल-जल कर बहुत दुखी होता है।

खूंद गधेडा खाय, पैलां री वाडी पडे।
आ अणजुगति आय , रडकै चित में राजिया।।74।।

भावार्थः-74 यदि परायी बाड़ी में गधे घुस कर उसे रोंदते हुए खाने लगे, तब भी हे राजिया ! यह अयुक्त बात है जो मन में अवश्य खटकती है।

नारी दास अनाथ, पण माथै चाढयां पछै।
हिय ऊपरलौ हाथ, राल्यो जाय न राजिया।।75।।

भावार्थः-75 नारी और दास अनाथ होते है ( इसीलिय इन दोनों को स्वामी की जरुरत होती है ) किन्तु एक बार इन्हें सिर पर चढा लेने से ये छाती-ऊपर का हाथ बन जाते है जिसे हटाना आसान नहीं होता। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

हियै मूढ़ जो होय. की संगत ज्यांरी करै।
काला ऊपर कोय, रंग न लागै राजिया।।76।।

भावार्थः-76 जो व्यक्ति जन्म-जात मुर्ख होते है, उन पर सत् संगति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, हे राजिया ! जैसे काले रंग पर कोई अन्य रंग नहीं चढ़ता।

मलियागिर मंझार , हर को तर चनण हुवै।
संगत लियै सुधार, रुन्खां ही नै राजिया।।77।।

भावार्थः-77 मलयागिरि पर प्रत्येक पेड़ चन्दन हो जाता है , हे राजिया ! यह अच्छी संगति का ही प्रभाव है , जो वृक्षो तक को सुधार देता है।

पिंड लछण पहचाण, प्रीत हेत कीजे पछै।
जगत कहे सो जाण, रेखा पाहण राजिया।।78।।

भावार्थः-78 किसी भी व्यक्ति से प्रेम व घनिष्ठता स्थापित करने से पहले उसके व्यक्तित्व की पूरी जानकारी कर लेनी चाहिय | यह लोक मान्यता पत्थर पर खिंची लकीर की भांति सही है।

ऊँचे गिरवर आग, जलती सह देखै जगत।
पर जलती निज पाग , रती न दिसै राजिया।।79।।

भावार्थः-79 ऊँचे पहाडो पर लगी आग तो सारा संसार देखता है ,परन्तु हे राजिया ! अपने सिर पर जलती हुयी पगड़ी कोई नहीं देखता, अर्थात दूसरो में दोष देखना बहुत आसान है किन्तु कोई अपने दोष नहीं देखता।

सुण प्रस्ताव सुभाय, मन सूं यूँ भिडकै मुगध।
ज्यूँ पुरबीयौ जाय , रती दिखायां राजिया।।80।।

भावार्थः-80 मुग्धा ( काम-चेष्ठा रहित युवा स्त्री ) नायिका रतिप्रस्ताव सूनकर इस प्रकार चौंक कर भागती है जैसे चिरमी दिखाने पर रंगास्वामी। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

जिण बिन रयौ न जाय, हेक घडी अळ्गो हुवां।
दोस करै विण दाय, रीस न कीजे राजिया।।81।।

भावार्थः-81 जिस व्यक्ति के घड़ी भर अलग होने पर भी रहा नही जाय , एसा ममत्व वाला व्यक्ति यदि कोइ ग़लती करे तो उसका बुरा नहीं मानना चाहिय।

समर सियाळ सुभाव , गळियां रा गाहिड़ करै।
इसडा तो उमराव, रोट्याँ मुहंगा राजिया।।82।।

भावार्थः-82 जिन लोगों का युद्ध में तो गीदड़ का सा स्वभाव हो किन्तु महफ़िल गोष्ठियों में अपनी बहादुरी की बातें करे , हे राजिया ! ऐसे सरदार (उमराव) तो रोटियों के बदले भी महंगे पड़ते है।

कही न माने काय, जुगती अणजुगती जगत।
स्याणा नै सुख पाय, रहणों चुप हुय राजिया।।83।।

भावार्थः-83 जहाँ लोग कही हुयी उचित-अनुचित बात को नहीं मानते हों वहां समझदार व्यक्ति को चुप ही रहना चाहिय, इसी में सार है।

पाटा पीड उपाव , तन लागां तरवारियां।
वहै जीभ रा घाव, रती न ओखद राजिया।।84।।

भावार्थः-84 शरीर पर तलवार के लगे घाव तो मरहम पट्टी आदि के इलाज से ठीक हो सकते है किन्तु हे राजिया ! कटु वचनों से हुए घाव को भरने की कोई ओषधि नहीं है।

नहचै रहौ निसंक,मत कीजै चळ विचळ मन।
ऐ विधना रा अंक,राई घटै न राजिया।।85।।

भावार्थः-85 निश्चय्पुर्वक नि:शंक रहो और मन को चल विचल मत करो,क्योकि विधाता ने भाग्य मे जो अंक लिख दिये है, हे राजिया ! वे राई भर भी नही घटेंगे । राजिया रा सोरठा अर्थसहित

सुधहिणा सिरदार,मतहीणा मांनै मिनख।
अस आंघौ असवार , रांम रुखाळौ राजिया।।86।।

भावार्थः-86 जो सरदार खुद तो सुध-बुध खोये रहता है और बुद्धिहिनो को अपना विश्वस्त बनाते है; अन्धे घोडे और अन्धे सवार की भांति ऐसे लोगो का भगवान ही रक्षक है।

भावै नहींज भात, विंजण लगै विडावणा।
रीरावे दिन रात, रोट्या बदळै राजिया।।87।।

भावार्थः-87 जिन लोगो को कभी भात अच्छा नही लगता और मीठे व्यंजन भी अरुचिकर लगते है, वे ही लोग समय के फ़ेर से रोटियों के लिये भी दिन-रात गिडगिडाने लगते है।

कूडा निजल कपूत, हियाफ़ूट ढांढा असल।
इसडा पूत अऊत, रांड जिणै क्यों राजिया।।88।।

भावार्थः-88 जो झूंठे होते है,निर्लज है, जिनकी ह्र्दय की आंखे फ़ूटी हुई है जो वस्तुत: पशु तुल्य है ऐसे कुपुत्र को स्त्री जन्म ही क्यों देती है।

चालै जठै चलंन, अण चलियां आवै नही।
दुनियां मे दरसंत, रीस सूं लोचन राजिया।।89।।

भावार्थः-89 जहां क्रोध चलता है,वहीं पर क्रोध आता है | जहां क्रोध का वश न चले, वहां आता ही नही। हे राजिया ! ऐसा लगता है मानो क्रोध के सूनेत्र है, जो वस्तु-स्थिति को सहज ही भांप लेते है।

सबळा संपट पाट, करता नह राखै कसर।
निबळां एक निराट , राज तणौ बळ राजिया।।90।।

भावार्थः-90 बलवान व्यक्ति लोगो मे उत्पात एवं उखाड-पछाड करने मे कोई कसर नहीं रखते,अतः निर्बलों के लिए तो एक मात्र राज्य सरकार का बल ( सरंक्षण ) ही होता है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

प्रभुता मेरु प्रमांण, आप रहै रजकण इसा।
जिके पुरुष धन जांण , रविमंडळ राजिया।।91।।

भावार्थः-91 जिनकी प्रभुता तो पर्वत-समान महान है,किन्तु जो स्वयं को रज-कण के समान तुच्छ समझते है, वे ही पुरुष संसार मे धन्य है।

लावां तीतर लार, हर कोई हाका करै।
सीहां तणी सिकार, रमणी मुसकल राजिया।।92।।

भावार्थः-92 लावा और तीतर जैसे पक्षियों के पीछे तो हर कोई व्यक्ति हो-हल्ला करता हुआ धावा बोल देता है, किन्तु हे राजिया सिहों का शिकार खेलना बहुत मुश्किल है। ( शक्तिशाली से टक्कर लेना बहुत मुश्किल होता है )।

मतळब बिना री मनवार , नैंत जिमावै चूरमा।
बिन मतळ्ब मनवार , राब न पावै राजिया।।93।।

भावार्थः-93 अपना मतलब सिद्ध करने के लिये तो लोग न्योता देकर मनुहार के साथ चूरमा (मधुर व्यंजन) खिलाते है, किन्तु बिना मतलब के कोई राबडी भी नहीं पिलाता।

मूसा नै मंजार, हित कर बैठा हेकठा।
सह जाणै संसार ,रस न रह्सी राजिया।।94।।

भावार्थः-94 चुहा और बिल्ली प्रेम का दिखावा कर भले ही एक जगह बैठे हो, किन्तु सारी दुनिया जानती है कि इनका यह प्रेम स्थाई नही रह सकता। (ठीक हमारे यहां के राजनैतिक दलों के गठबंधन की तरह )

मन सूं झगडै मौर, पैला सूं झगडै पछै।
त्यांरा घटै न तौर , राज कचेडी राजिया।।95।।

भावार्थः-95 जो लोग तर्क-वितर्क द्वारा पहले अपने मन से झगड लेते है और बाद मे दुसरो से झगडा करते है, हे राजिया उनका रुतबा राज्य की कचहरी मे भी कम नही होता। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

सांम धरम धर साच , चाकर जेही चालसी।
ऊनीं ज्यांनै आंच, रती न आवै राजिया।।96।।

भावार्थः-96 जो सेवक स्वामिभक्ति एवं सत्य को धारण किये रहेंगे , हे राजिया ! उनके ऊपर रत्ती भर भी कभी विपत्ति की आंच नही आयेगी।

चोर चुगल वाचाळ, ज्यांरी मांनीजे नही।
संपडावै घसकाळ , रीती नाड्यां राजिया।।97।।

भावार्थः-97 चोर चुगल और गप्पी व्यक्तियों की बातो पर कभी विश्वास नही करना चाहिए,क्योंकि ये लोग प्राय: तलाइयों मे ही नहला देते है अर्थात सिर्फ़ थोथी बातों से ही भ्रमा देते है।

जणही सूं जडियौह, मद गाढौ करि माढ्वा।
पारस खुल पडियौह, रोयां मिळै न राजिया।।98।।

भावार्थः-98 जिस मनुष्य के साथ घनिष्ठ प्रेम हो जाता है,तो निर्वाह मे सदैव सजग रहना चाहिय, अन्यथा जैसे बंधा हुआ पारस खुलने पडने पर रोने से फ़िर नही मिलता, वैसे ही खोई हुई अन्तरंग मैत्री पुन: प्राप्त नही होती।

खळ गुळ अण खूंताय, एक भाव कर आदरै।
ते नगरी हूंताय, रोही आछी राजिया।।99।।

भावार्थः-99 जहां खली और गुड दोनो का मूल्य एक ही हो अर्थात गुण-अवगुण के आधार पर निर्णय न होता हो,हे राजिया ! उस नगरी से तो निर्जन जंगल ही अच्छा है।

भिडियौ धर भाराथ,गढडी कर राखै गढां।
ज्यूं काळौ सिर जात ,रांक न छाई राजिया।।100।।

भावार्थः-100 जब धरती के लिये युद्ध होता है, तब शूरवीर अपनी छोटी सी गढी को भी एक बडे गढ के समान महत्व देकर उसकी रक्षा करता है, जैसे काले नाग के सिर पर जाने की कोई कोशिश करेगा तो वह कभी कमजोरी नही दिखायेगा बल्कि फ़न उठायेगा। (अपने घर,ठिकाने व देश की रक्षा करना हर व्यक्ति का परम धर्म है।) राजिया रा सोरठा अर्थसहित

औगुणगारा और, दुखदाई सारी दुनी।
चोदू चाकर चोर , रांधै छाती राजिया।।101।।

भावार्थः-101 जो सेवक दब्बू और चोर हो और उसके अनुसार तो अन्य लोग भी बुरे है और सारी दुनियां दुख: देने वाली है। हे राजिया ! ऐसा सेवक तो सदैव अपने स्वामी का जी जलाता रहता है।

बांका पणौ बिसाळ, बस कीं सूं घण बेखनै।
बीज तणौ ससि बाळ, रसा प्रमाणौ राजिया।।102।।

भावार्थः-102 संसार मे बांकेपन की महानता मानी जाती है,क्योकि वह किसी के बस मे नही होता। जिस प्रकार द्वितीया के चंद्र्मा को देखकर सभी नमन करते है, यह उसके बांकेपन का ही प्रमाण है।

बंध बंध्या छुडवाय , कारज मनचिंत्या करै।
कहौ चीज है काय, रुपियो सरखी राजिया।।103।।

भावार्थः-103 जो काराग्रह के बंधन तक से मनुष्य को छुड्वा देता है और मनचाहे कार्य सम्पन्न करवा देता है, भला इस रुपये के समान अन्य कोनसी वस्तु हो सकती है।

राव रंक धन रोर , सूरवीर गुणवांन सठ।
जात तणौ नह जोर, रात तणौ गुण राजिया।।104।।

भावार्थः-104 राजा और रंक, धनी और गरीब, शूरवीर, गुणी एवं मूर्ख – इन बातो के लिये किसी जात का नही बल्कि उस रात का कारण होता है,जिस नक्षत्र या घडी मे उस व्यक्ति का जन्म होता है। अर्थात ये जन्मजात गुण किसी जाति की नही, अपितु प्रकृति की देन है।

वसुधा बळ ब्योपाय , जोयौ सह कर कर जुगत।
जात सभाव न जाय , रोक्यां धोक्यां राजिया।।105।।

भावार्थः-105 इस धरती पर बल-प्रयोग और अन्य सब युक्तियों के द्वारा परीक्षण करने पर भी यही निष्कर्ष निकला कि जाति विशेष का स्वभाव कभी मिटता नही, चाहे अवरोध किया जाये या अनुरोध किया जाये। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

अरहट कूप तमांम, ऊमर लग न हुवै इती।
जळहर एको जाम, रेलै सब जग राजिया।।106।।

भावार्थः-106 कुएं का अरहट अपनी पुरी उम्र तक पानी निकाल कर भी उतनी भूमि को सिंचित नही कर सकता, जितनी बादल एक ही पहर मे जल-प्लावित कर देता है।

नां नारी नां नाह, अध बिचला दीसै अपत।
कारज सरै न काह, रांडोलां सूं राजिया।।107।।

भावार्थः-107 जो लोग न तो पुरुष दिखाई देते है और न ही नारी, बीच की श्रेणी के ऐसे अप्रतिष्ठित जनानिये लोगो से कोई भी काम पार नही पडता।

आहव नै आचार , वेळा मन आधौ बधै।
समझै कीरत सार , रंग छै ज्यांने राजिया।।108।।

भावार्थः-108 युद्ध और दानवीरता की वेला मे जिनका मन उत्साह से आगे बढता है और जो कीर्ति को ही जीवन सार समझते है, वे लोग वास्तव मे धन्य है और वन्दनीय है।

विष कषाय अन खाय, मोह पाय अळसाय मति।
जनम अकारथ जाय, रांम भजन बिन राजिया।।109।।

भावार्थः-109 विषय- वासनाओं मे रत रहते हुए अन्न खाकर मोह मे पड़ कर आलस्य मत कर | यह मानव जन्म ईश्वर भजन के बिना व्यर्थ ही बिता जा रहा है।

जिण तिण रौ मुख जोय, निसचै दुख कहणौ नहीं।
काढ न दै वित कोय, रीरायां सूं राजिया।।110।।

भावार्थः-110 हर किसी के आगे अपना दुख: नही कहना चाहिय, क्योंकि गिड़गिड़ाने से कोई भी व्यक्ति धन निकाल कर नही दे देगा। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

जका जठी किम जाय, आ सेज्यां हूंता इळा।
ऐ मृग सिर दै आय, रीझ न जाणै राजिया।।111।।

भावार्थः-111 वीर भोग्या वसुन्धरा सूत्र के अनुसार भूमि रुपी भार्या शूरवीरों की शय्या छोड़कर अन्यत्र सहज ही कैसे जा सकती है, क्योंकि ये मस्ताने तो मृगों की तरह रीझना नही जानते, बल्कि सिर देना जानते है।

रिगल तणौ दिन रात, थळ करतां सायब थक्यौ।
जाय पड़यौ तज जात, राजश्रियां मुख राजिया।।112।।

भावार्थः-112 रात दिन स्वामी के विनोद की व्यवस्था करते-करते थक गया और अपने जाति-स्वभाव को भी छोड़ दिया, क्योकि वह राजश्री लोगो (रईसों) के घेरे मे जा पड़ा। [दरबारी सेवक की विवश दशा का चित्रण ] राजिया रा सोरठा अर्थसहित

नारी नहीं निघात, चाहीजै भेदग चतुर।
बातां ही मे बात, रीज खीज मे राजिया।।113।।

भावार्थः-113 किसी का भेद जानने के लिये नारी की नही,बल्कि चतुर कुटनिज्ञ चाहिए,जो बातों ही बातों मे व्यक्ति को रिझा कर अथवा खिजा कर रहस्य ज्ञात कर सके।

क्यों न भजै करतार , साचै मन करणी सहत।
सारौ ही संसार, रचना झूंठी राजिया।।114।।

भावार्थः-114 मनुष्य सच्चे मन और कर्म से परमात्मा का भजन क्यों नही करता ? यह सारा संसार तो मिथ्या है, सत्य तो एकमात्र ईश्वर ही है।

घण-घण साबळ घाय, नह फ़ूटै पाहड़ निवड़।
जड़ कोमळ भिद जाय, राय पड़ै जद राजिया।।115।।

भावार्थः-115 जो पहाड़ हथोड़ो के घने प्रहारों से भी नही टूटता, उसी मे छोटी सी दरार पड़ जाने पर पेड़ की कोमल जड़ उसे भेद देती है अर्थात फ़ूट पड़ने पर कमजोर शत्रु भी घात करने मे सफ़ल हो जाता है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

जगत करै जिमणार, स्वारथ रै ऊपर सकौ।
पुन रो फ़ळ अणपार, रोटी नह दै राजिया।।116।।

भावार्थः-116 संसार मे लोग स्वार्थ की भावना और दिखावे के लिये तो तरह-तरह के भोजों का आयोजन करते है, किन्तु पुण्य महान फ़लदयाक होने पर भी उस भावना से किसी भुखे को रोटी तक नही दी जाती है।

हित चित प्रीत हगांम महक बखेरै माढवा।
करै विधाता कांम, रांडां वाला राजिया।।117।।

भावार्थः-117 विधाता भी कभी-कभी मुर्ख कार्य कर बैठता है, वह संसार मे प्रेम,प्रसन्नता और रागरंग की मदभरी महक के दौर मे ही सहसा उस मनुष्य को मिटा देता है।

स्याळां संगति पाय, करक चंचेड़ै केहरी।
हाय कुसंगत हाय, रीस न आवै राजिया।।118।।

भावार्थः-118 गीद्ड़ों की संगति पाकर शेर भी सूखी हड्डियां चबाने लगा है। हाय री कुसंगति ! उसे तो अपने किये पर क्रोध भी नही आ रहा है।

धांन नही ज्यां धूळ, जीमण बखत जिमाड़िये।
मांहि अंस नहिं मूळ, रजपूती रौ राजिया119।।

भावार्थः-119 जिन लोगो मे क्षात्रवट(रजपूती) के संस्कारो का लवलेश भी नही है, उन्हे भोजन के समय खिलाया जाने वाला अनाज धूल के समान है।

के जहुरी कविराज, नग माणंस परखै नही।
काच कृपण बेकाज, रुळिया सेवै राजिया।।120।।

भावार्थः-120 कई जौहरी नगीनो को और कई कवि गुणग्राहक मनुष्यो को परख नही सकते, इसीलिए वे क्र्मश: कांच और कृपण की निष्फ़ल सेवा कर अन्त मे पछताते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

आछा है उमराव,हियाफ़ूट ठाकुर हुवै।
जड़िया लोह जड़ाव, रतन न फ़ाबै राजिया।।121।।

भावार्थः-121 जहां उमराव तो अच्छे हो किन्तु उनके सहयोगी ठाकुर मुर्ख हो, तो हे राजिया !वे उसी प्रकार अशोभनीय लगते है जैसे रत्न जड़ित लोहा।

खाग तणै बळ खाय , सिर साटा रौ सूरमा।
ज्यांरों हक रह जाय, रांम न भावै राजिया।।122।।

भावार्थः-122 जो शूरवीर अपने खड्ग के बल पर और सिर की कुरबानी के बदले जिविका प्राप्त करने के अधिकारी बनते है,और यदि उनका हक बाकि रह जाय तो यह बात तो भगवान को भी नही भायेगी।

समझणहीन सरदार , राजी चित क्यां सूं रहै।
भूमि तणौ भरतार, रीझै गुण सूं राजिया।।123।।

भावार्थः-123 बुद्दिहीन सरदारो से राजा किस प्रकार प्रसन्न रहे,क्योकि वह तो गुणो से रीझने वाला है। गुणग्राहक व्यक्ति गुणहीन लोगो को कैसे पसन्द करेगा।

बचन नृपति-अवेविक, सुण छेड़े सैणा मिनख।
अपत हुवां तर एक, रहै न पंछी राजिया।।124।।

भावार्थः-124 विवेकहीन राजा के दुर्वचन को सुनकर समझदार व्यक्ति उसी प्रकार उसका साथ छोड़कर चले जाते है, जैसे पत्तो से विहिन होने पर पेड़ के ऊपर एक भी पक्षी नही रहता।

जिणरौ अन जल खाय, खळ तिणसूं खोटी करै।
जड़ामूळ सूं जाय , रामं न राखै राजिया।।125।।

भावार्थः-125 जिस व्यक्ति का अन्न-जल खाया है, उसी के साथ यदि कोई गद्दारी करता है,तो उसका वंश सहित नाश हो जाता है,क्योकि ऐसे कृतध्न की तो ईश्वर भी रक्षा नही करता। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

आछोड़ा ढिग आय ,आछोड़ा भेळा हुवै।
ज्यूं सागर मे जाय, रळै नदी जळ राजिया।।126।।

भावार्थः-126 सज्जनो के पास सज्जनो का समागम इस प्रकार सहज ही हो जाता है, जैसे नदी का जल स्वत: सागर मे जा मिलता है।

अरबां खरबां आथ, सुदतारां बिलसै सदा।
सूमां चलै न साथ, राई जितरी राजिया।।127।।

भावार्थः-127 दानवीर मनुष्यों के पास अरबों खरबो की सम्पति होती है, तो वे उसका संचय न करके सदैव उपभोग करते है। इसके विपरित कृपण लोग केवल संचय करते है, किन्तु अन्त समय मे राई के बराबर भी वह सम्पति उनके साथ नही जाती।

सत राख्यौ साबूत , सोनगरै जगदे करण।
सारी बातां सूत, रैगी सत सूं राजिया।।128।।

भावार्थः-128 विरमदेव सोनगरा (जालौर का), जगदेव पवांर(धारा-नगरी का) और कर्ण ने सत्य को पूर्णत: धारण किये रखा, सत्य पर अडिग रहने से ही उनकी सारी बाते सुचारु रुप से बनी रह गई।

कनवज दिली सकाज, वे सावंत पखरैत वे।
रुळता देख्या राज, रवताण्यां वस राजिया।।129।।

भावार्थः-129 कन्नोज और दिल्ली के जयचन्द और पृथ्वीराज जैसे अधिपतियों के पास वे सामन्त और घौड़े थे, किन्तु स्त्रियों के कारण वे राज्य बरबाद होते देखे गये। अर्थात विलासिता के प्रसंग किसी भी शासक के लिये घातक सिद्ध होते है।

अदतारां घर आय, जे क्रोड़ां संपत जुड़ै।
मौज देण मन मांय, रती न आवै राजिया।।130।।

भावार्थः130 यदि कृपण लोगो के पास करोड़ो की सम्पति भी एकत्र हो जाय,तब भी उनके मन मे रीझ करने की भावना रत्ती भर भी जाग्रत नही होगी। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

उण ही ठांम अजोग, भांणज री मन मे भणै।
आ तो बात अजोग, रांम न भावै राजिया।।131।।

भावार्थः-131 मनुष्य जिस बर्तन मे खाता है, और यदि उसी बर्तन को तोड़ने की बात मन मे विचारता है, तो यह सर्वथा अनुचित है और ईश्वर को भी अच्छी नही लगती।

अवसर मांय अकाज, सांमौ बोल्यां सांपजै।
करणौ जे सिध काज, रीस न कीजे राजिया।।132।।

भावार्थः-132 कार्य सफ़ल होने अवसर पर आने पर यदि सामने वाले से किसी बात पर तकरार हो गई तो बनता काम बिगड़ जायेगा, इसलिए यदि काम बनाना हो तो उसकी बात पर क्रोध मत करो, उसे पचा लो।

नैन्हा मिनख नजीक , उमरावां आदर नही।
ठकर जिणनै ठीक, रण मे पड़सी राजिया।।133।।

भावार्थः-133 जो छोटे आदमियों(क्षुद्र विचारो वाले) को सदैव अपने निकट रखता है और उमरावों ( सुयोग्य व सक्षम व्यक्तियों) का जहां अनादर है, उस ठाकुर (प्रसाशक) को रणभूमि (संकट के समय) मे पराजय का मुंह देखने पर ही अपनी भूल का अहसास होता है।

मांनै कर निज मीच, पर संपत देखे अपत।
निपट दुखी: व्है नीच, रीसां बळ-बळ राजिया।।134।।

भावार्थः-134 नीच प्रक्रति का व्यक्ति किसी दुसरे की संपति देख जलता रहता है ,और जल-जल कर नितान्त दुखी रहता है।

लो घड़ता ज लुहार, मन सुभई दे दे मुणै।
सूंमा रै उर सार, रहै घणा दिन राजिया।।135।।

भावार्थः-135 लुहार अपने अहरन पर हथौड़ो से प्रहार करते समय दे दे शब्द की “भणत” बोलते है, किन्तु क्रपण व्यक्तियो के ह्र्दय मे देने का उदघोष करने वाली वह ध्वनी कई दिनो तक सालती रहती है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

हुवै न बुझणहार, जाणै कुण कीमत जठै।
बिन ग्राहक व्यौपार, रुळ्यौ गिणिजै राजिया।।136।।

भावार्थः-136 जहां किसी को कोई पुछने वाला भी नही मिलेगा तो उसके गुण का महत्व कौन समझेगा | यह सच है बिना ग्राहक के व्यापार ठप्प हो जाता है।

तज मन सारी घात, इकतारी राखै इधक।
वां मिनखां री वात, रांम निभावै राजिया।।137।।

भावार्थः-137 जो लोग अपने मन से सभी कुटिलताए त्याग कर सदैव एक सा आत्मीय व्यवहार करते है, हे राजिया ! उन मनुष्यो की बात तो भगवान भी निभाता है।

पटियाळौ लाहोर, जींद भरतपुर जोयलै।
जाटां ही मे जोर, रिजक प्रमाणै राजिया।।138।।

भावार्थः-138 पटियाला,लाहोर,जीद और भरतपुर को देख लिजिए,जहां जाटो मे ही शक्ति है,क्योकि ताकत का आधार रिजक होता है।

खग झड़ वाज्यां खेत, पग जिण पर पाछा पड़ै।
रजपुती मे रेत , राळ नचीतौ राजिया।।139।।

भावार्थः-139 रणखेत मे जब तलवारे बजने लगे, उस समय कोई रण विमुख हो जाय,तो ऐसी वीरता पर निश्चित होकर रेत डालिए।

सत्रु सूं दिल स्याप, सैणा सूं दोखी सदा।
बेटा सारु बाप, राछ घस्या क्यूं राजिया।।140।।

भावार्थः-140 जो शत्रु से मित्रता और हितेषी से द्वेष रखता हो, ऐसे बेटे को जन्म देने के लिए बाप ने व्यर्थ ही क्यो कष्ट उठाया। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

गैला गिंडक गुलाम, बुचकारया बाथा पडै।
कूटया देवै कांम , रीस न कीजै राजिया।।141।।

भावार्थः-141 पागल, कुत्ता और गुलाम ये तीनो पुचकारने से हावी होने लगते है| ये तो ताड़ने से ही काम देते है,इसमे क्रोध करना व्यर्थ है।

खीच मुफ़्त रो खाय, करड़ावण डूंकर करै।
लपर घणौ लपराय, रांड उचकासी राजिया।।142।।

भावार्थः-142 जो मुफ़्त का खीच खाकर अकड़ता हुआ डींगे हाँकता है, ऐसा फ़रेबी और ढोंगी तो किसी पराई स्त्री को भी बहका कर ले भाग सकता है।

ये थे राजस्थान के कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित नीति सम्बंधित दोहे जो उन्होंने अपने सेवक राजिया को संबोधित करते हुए वि.स.1850 के आस पास या पहले लिखे होंगे। उपरोक्त दोहो का हिंदी अनुवाद किया गया है राजस्थानी विद्वान् डा.शक्तिदान कविया द्वारा ” राजिया रा सोरठा” नामक पुस्तक में | यदि आप यह पुस्तक प्राप्त करना चाहते है तो राजस्थानी ग्रंथागार सोजती गेट जोधपुर से मंगवा सकते है। राजिया रा सोरठा अर्थसहित

 

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