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उलट ज्ञान के दोहे

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उलट ज्ञान के दोहे

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संत कवियों की परंपरा में सुन्दर दास जी महाराज उलट वाणी शैली में सफल प्रवक्ताओं में से एक है आपने साखी औऱ सवैया दोनों ही छंद अंग रचें है “विपर्यय” शीर्षक से अंग रचें है इनमें विरोधाभासमयी अभिव्यक्ति के लिए। “विपर्यय” शीर्षक का मंतव्य प्रदान किया है उल्टा ख्याल उल्टी बात उल्टी रीति उल्टो ज्ञान उल्टी कहीं उल्टी गंग आदि आदि शब्दों का इनमें उलट विशेषण का प्रयोग महत्वपूर्ण है कबीर साहिब जी की तरह ही सुंदर दास जी अर्थ उद्घघाटन के लिए “पंडित ज्ञाता” “ज्ञानी अवधू” आदि के रूप में प्रतिपक्ष की कल्पना नहीं करते हैं हां श्रोता पाठक को अर्थ समझने के लिए प्रयोक्ता सजग अवश्य करता है पर इनमें चुनौती का स्वर प्रायः नहीं है संतवाणीयों की सामान्य प्रवृत्ति की तरह सवैया छंदो की अंतिम पंक्ति में प्रयोक्ता का नाम भी है संक्षेप में कह सकते हैं कि सुंदरदास ने परंपरा प्राप्त उलट वाणी शैली को अपनी प्रतिभा और कुशलता के बल पर एक शुद्र आधार और काव्य कौशल प्रदान किया है यद्यपि उनके गुरु भाई संत रज्जब जी उनके निकट अपनी सशक्त पहचान बता बनाते दिखाई देते हैं वास्तव में सुंदर दास अपनी उल्टी बात के मर्म को जानने के लिए समझ को ही कसौटी मानते हैं। उलट ज्ञान के दोहे

सुंदर सब उल्टी कहीं समूजै संत सुजान।
और न जाने बापूरे मरे बहुत अज्ञान।।

कह सकते हैं कि जिस प्रकार धारा को बांधकर या तटबंध बनाकर एक विशेष मोड़ या घुमाव दिया जाता है वैसे ही वाणी रुप बहते जल को प्रतीक प्रधान उलट वाणी शैली के द्वारा सुंदर दास जी ने एक बंद देकर वाणी की ऊर्जा को प्रतीक में निहित करते हुए विपर्यय अंग लिखकर कथन भंगीमां की जो फोर्स तैयार की है वह कबीर कथन परंपरा में महत्वपूर्ण वाणी कौशल है वाणी की ऐसी वक्रता को परिष्कृत ब्रज भाषा में वह भी सवैया जैसे छंद में संजोकर प्रस्तुत करना सुंदर जैसे सिद्धहस्त कवियों का ही कार्य हो सकता है सुंदर दास ने अपने उलट वाणी शैली के साखी और सवैया छंदो के अनेक प्रतीकों का प्रयोग किया है जो पारिभाषिक कम सांकेतिक अधिक है उदाहरण के लिए कुछ स्थितियों के लिए पारिभाषिक सांकेतिक प्रतीक शब्दों को देखा जा सकता है– उलट ज्ञान के दोहे

-:संक्षिप्त शब्दार्थ:-

अमृतानंद:- झर, बरखा, भोजन, आदि।
अज्ञान:-भार【बोझ】,माँस मदिरा, राति,आदि।
अन्तः करण:-चौका।
अन्तर्मुखी साधक:-अन्ध, पशुघातक, मूरख, नकटा आदि।
अहंकार:-पर्वत, मेर, बाप, टाबर आदि।
आत्मा:-बूंद, राजा, साह आदि।
इच्छा_कामना_मनसा:-घटा, जोरू, डाईनी, नाइकनि, बिजली, भूष,मछरी, आदि।
गुरू:-बढ़हि, दरजी आदि।
चित और उसकी अवस्थाएं:-पत्र, शिष्य, चूल्हा, हाली आदि।
जीव_जीवात्मा:-काक, खसम, देव, बेटी, बैल, राजा, रंक, शुक, कोकिल, सारौ 【सारिका】,हँस आदि।
मरजीवा:-मृतक, पाहन आदि।
ज्ञान:-अग्नि,कांसा, खिचड़ी, चोर, तवा, दिवस, दीपक, धूप, भाई, लौन, सोना आदि।
ध्यान:-धनकि, तार आदि।
निवृति:-रजनी, रुई आदि।
पंचेंद्रिया:-कुटुम्ब, पशु, मृग, चेला, पहराइत आदि।
प्रकृति:-पाती।
बुद्धि और उसकी अवस्थाएँ:-कन्या, कीरी, धी, बेश्या, बहु, बन्ध्या, लकरी,राई,मछरी आदि।
ब्रह्म_तत्व:-ब्रह्म, अगीन तत्व,पानी,बरी,भिक्षा,समुंद्र, शीतलता आदि।
मन:-कुंजर,कुम्हार,कोतवाल, दरजी,देव,धोबी,बगुला, बढ़ई,ब्रह्मा,बैल,भरतार,मेघ,राजा,लुहार, व्याघ्र,सुनार आदि।
माया और उसकी दशाएं:-पानी,जल तत्व आदि।
विषय_वासना:-दूध दही,मिठाई,सालन,आक धतूरा आदि।
शरीर और उसके अंग:- अंगीठी, कपरा, जोली, तुंबिका, पाहन, बाड़ी, माटी, हंडिया आदि।
संसार:- बस्ती, उजाड़ आदि।
श्वास प्रश्वास:- खाल।
संशय:- सिंह, सर्प।
साधक:- अहेरी, पंथी, माली,बधिक, निर्दयी आदि।
सुरती:- बाती, रोटी, लकड़ी, बहू, सुई आदि।
हृदय:– कमल। gyan ki bate

श्रवण हूं देखी सुनि पुनि नैनहुं जिव्हा सुंघी नासिका बोल।
गुदा खाई इंद्रिय जल पीवे बिन ही हाथ सुमेरही तोल।
ऊंचे पाई मुंड नीचे को विचरत तीनि लोक में डोल।
सुंदरदास कहे सुनि ज्ञानी भली-भांति या अर्थहि खोल।।
अर्थात:-
कानो से देखना आंखों से सुनना जीव्या से सूंघना नाक से बोलना गुदा से खाना उपस्तेंद्रिय से जल पीना बिना हाथ के पर्वत को उठाना ऊपर को पांव और मुंह नीचे को करके तीनो लोक में विचरण करना सुंदर दास जी महाराज कह रहे हैं कि हे ज्ञानी इस अर्थ का तुम भली-भांति खोलकर बताओ।  उलट ज्ञान के दोहे
शब्दार्थ:-
“श्रवण हूं देखी” श्रवण से देखता है अर्थात श्रवण सुरती द्वारा शुभाशुभ के विचार का अवलोकन करना ही कानों से सुने हुए को देखना कहा गया है। “सुनी पुनि नैनहूं” नेत्रों से सुनना अर्थात साधक नेत्र निरती द्वारा सर्व कार्य अकार्य संबंधी सुरती का साक्षात्कार करता है यही नेत्रों का सुनना है। “जिव्या सूंघी” जिव्हा से सूंघना अर्थात जीब से राम नाम रूपी नाद की आस्वाद गंध को प्राप्त करना ही जिव्या से सूंघना है। “नासिका बोल” नाक से बोलना अर्थात नासिका द्वारा स्वास प्रस्वास पूर्वक हंस ध्वनि जप ध्वनि करना ही नासिका से बोलना है गूदा खाई गुदा उपस्थित मलद्वार से खाता है अर्थात आधार चक्र पर अपान वायु को स्थिर करके उसका भोग करना (साधना निहित रहना ही) खुदा द्वारा खाया जाना है इंद्रिय जल पीवे इंद्रिय लिंग से जल पीता है अर्थात योग क्रिया वज्रोली द्वारा लिंग से जल घृत दुग्ध खींचना ही इंद्रिय द्वारा जल पिया जाना है अथवा इंद्रिय विकारों को सौखना ही इंद्रियों से जल पीना है “बिन हाथ सूमेरही तो” बिना हाथों के ही सुमेर पर्वत को तोलता है अर्थात विवेक द्वारा पर्वत जैसे बड़े अहंकार पर विजय पाना ही बिना हाथों के सुमेर पर्वत को तोलना है “उंचे पाई मुंड नीचे को” सिरसासन करता है अथवा ऊंचा परमेश्वर प्राप्त होने पर सिर को नीचे को झुक जाता है परमात्मा के चरण कमलों को मस्तिष्क पर धारण करके”बिचरत तिनहू लोक में डोल” स्वेच्छाचारी होकर तीनों लोकों में अर्थात सर्वत्र विचरण करता है “ज्ञानी विचारक अर्थ ही खोल” अर्थ इस मर्म का उद्घाघाटन कर टिप्पणी: साधना से जब मन वशीभूत हो जाता है तो पंच इंद्रियों के अंतर्मुखी हो जाने से उसके बहिर्मुखी कार्यों को साधक जैसा चाहे उलट-पुलट करके संपन्न करने की सामर्थ्य पा लेता है ज्ञान विरह दशा में लोक क्रम का व्यतिक्रम हो जाता है। उलट ज्ञान के दोहे

अंधा तीन लोक को देखें बहरा सुने बहुत विधि नाद।
नकटा बास कमल की लेवे गूंगा करें बहुत संवाद।
टूटा पकरी उठावे पर्वत पंगुल करें नृत्य अहलाद।
जो कोऊ याको अर्थ बिचारे सुंदर सोई पावे स्वाद।।

अर्थात:-
अंध व्यक्ति अंतर्दृष्टि वाला “अंधा तीन लोक को देखें” अंतर्मुखी आत्मज्ञानी तीनों लोकों को हस्ताकमलवत देखता है बहरा अंतर श्रवण वाला आंतरिक नाद जिसे अनहद नाद भी कहते हैं सुनने वाला नकटा नाक रहित अर्थात जो लोक लाज या लोक रूडी की चिंता ने करने वाला अंतर घ्राण शक्ति वाला जो सहस्त्रार चक्र निहित कमल सुगंध का अनुभव कर पाता है गूंगा मुक चर्म जिव्हा से न बोलकर अंतःजिव्हा से बोलने वाला अर्थात जो बाह्य जिव्हा से अबोल रहता है टूटा खंडित या भग्न हाथ वाला अर्थत बाहर से हस्त क्रिया न करने वाला किन्तु आंतरिक संकल्प के हाथों से जो अहंकार रूप पर्वत को उठाने में समर्थ होता है जो बाह्य गति से अवरुद्घ किन्तु अपनी सूक्ष्म गति में नृत्य( ध्यान निरत) आह्लाद (आनंद) में नीरत रहने वाला स्वाद आत्मानंद परमसुख अंतर्मुखी सूक्ष्म दशा का आनंद। उलट ज्ञान के दोहे

कुंजर को कीरी गिली बैठी सिंघई खाई अघानों स्याल।
मछरि अग्नि माही सुख पायो जल में हुतो बहुत बेहाल।
पंगु छड़ीयों पर्वत के ऊपर मृतकहीं देखी डरानो काल।
जाको अनुभव होई सु जाने सुंदर ऐसा उल्टा ख्याल।।

अर्थात्:-
कुंजर हाथी प्रती. काम राग। किरी चिट्टि प्रति. बुद्धि( सूक्ष्म) सिंघ शेर प्रति. संशय या क्रोध सियाल शृंगाल प्रति. जीवात्मा प्रबुद्ध जीव माछरी, मछली प्रति. चंचल वृति मनसा अग्नि आग प्रति. ब्रह्म अग्नी, ज्ञानाग्नी, चेतना की उस्मा, जल पानी प्रति. माया वासना विषय आशक्ती। पंगु लंगड़ा भग्नांग प्रति. अंतर्मुखी साधक अर्थात इंद्रियों की बाहरी (शक्ति) दौड़ जिसने अनुशासित कर ली है पर्वत पहाड़ प्रति. अहंकार आपा मृतक मरा हुआ प्रति. मरजीवा जिसने इंद्रियों के(बाह्य) प्रचार को अवरुद्ध कर लिया है काल मृत्यु मृत्यु बोध, प्रति. मृत्यु का भय सवैया का सांकेतिक अर्थ सारांश मैं इस प्रकार किया जा सकता है विचार साधक अपनी ज्ञान बिरह दशा में विषय प्रवृत्त कुंजर रूप प्रबल (काम) वासना वाले अहंकारी मन को सुक्ष्म बुद्धि (चींटी) रूप अंकुश के वशवरती बना लेता है उस अनुभव दशा में ही कुशल चतुर श्रृंगाल रूप प्रबुद्ध जीवात्मा (विचारक मनुष्य) दोष वृत्ति के मूल संशय या क्रोध रूप मन को विचार शक्ति से अभिभूत कर लेता है तब चंचला वृत्ति रूप मछली (मनसा) जो विषय जल में सुखा अनुभूति का अनुभव करती रहती थी विवेक काल में आते ही विचार या ज्ञानाग्नि के संस्पर्श से मायिक जल में असंतोष (बेचैनी) के साथ ही सात्विक ज्ञान जन्य ब्रह्मागनी में सुख का अनुभव करने लगती है सामान्य जीवन में बहिर्मुखी मन पर्वताकार अहंकार से दबा रहता है वही मन विचार काल में निवृत्ति मुखी होने से पंगु सा दिखाई देता है तब उसे जो क्षमता अनुभूति होती है उसमें काम या अहंकार रूप पर्वत जिस पर आरोहण कठिन था वशावर्ती(आधीन) हो जाता है उधर भ्रम के संशय सागर में पड़ा हुआ मनुष्य जो मृत्यु भय से निरंतर भयभीत बना रहता है मरजीवा या जीवन मुक्त अवस्था में पहुंचने पर अपनी अंतर्मुखी दशा में रमता राम का निरंतर अनुभव करने लग जाता है तब उसकी वृत्ति देह संघात से ऊपर उठ जाती है अतः राममय हुआ वह (साधक) मृत्यु बोध के भय से मुक्त हो जाता है ऐसे विचार साधक से स्वयं काल ही भयभीत हो उठता है क्योंकि काल की भयप्रद शक्तियां उस विचारक पर लागू नहीं हो पाती तात्पर्य यह है कि मरजीवा जीवन जीने वाले का सारा कार्य सहज रूप में चलता रहता है किसी दबाव के कारण नहीं हर छंद में अपनी छाप छोड़ने वाले कवि सुंदर दास का कहना है कि ऐसे उलट वाणी पद या उल्टी बात का मंतव्य वही जिज्ञासु साधक समझ पाता है जो समग्र परिस्थिति का अवगाहन विचार पूर्वक कर लेता है अविचार या गाडर गमन (भेड़ चाल) में तो ऐसे विपर्यय कथन या विरोध विसंगति गर्भित उक्तियां असंबद्ध या उलटी सी ही जान पड़ती है पर अनुभवी साधक उनके विरोधाभास का परिहार स्वयं अपने विवेक से कर लेता है। उलट ज्ञान के दोहे

बुंदही माही समुंद्र समानो राई माही सामानों मेर।
पानी माही तुंबीका बूढ़ी पाहन तीरत ना लागी बेर।
तिनी लोक में भया तमाशा सूर्य कीयों सकल अंधेर।
मूर्ख होई सु अर्थही पावे सुंदर कहे शब्द में फेर।।

शब्दार्थ:-
बूंद-जीवात्मा।समुंद्र – मायीक व्याप्ति अथवा परमात्मा। राई – तत्व ज्ञान भक्ति की सूक्ष्मता। मेर- अहंकार या तदाकर मन। पानी – भक्ति की सात्विकता सरलता अथवा अछेदता। तुंबी- काया शरीर देह। पाषाण- वह हृदय जिसमें कभी शब्द वचन अथवा उपदेश तीर विधते नहीं थे। बेर- देर,वेला। तमाशा – अद्भुत विलक्षण दृश्य। सूर्य – ज्ञान प्रकाश। अंधेर- पदार्थ बोध का अभाव नानातत्व की समाप्ति।
मूर्ख- लोक दृष्टि से मूर्ख कहलाए जाने वाला अंतर्मुखी साधक अर्थ- तात्पर्य, मंतव्य, सार, ब्रह्म तत्व, शब्द में फेर- शब्द में अथवा शब्द के द्वारा प्रस्तुत पेच वाणी में अभिव्यक्त विरोधाभासमय विसंगति। उलट ज्ञान के दोहे

मछरि बगुला को गहि खायो मुसे खायो कारों सांप।
सुवे पकरी बिलैया खाई ताके मुये गयो संताप।
बेटी अपनी मां गहीं खाई बेटे अपने खायो बाप।
सुंदर कहे सुनो रे संतो तीनको कौऊ न लागो पाप।।

देव माहि तै देवल प्रगटियो देवल मही तै प्रगटियो देव।
शिष्य गुरुहि उपदेशन लागो राजा करें रंग की सेव।
बंध्या पुत्र पंगु इकु जायो ताको घर खोवन की टेव।
सुंदर कहे सू पंडित ज्ञाता जो कोऊ याको जाने भैव।।

कमल माही तै पानी उपज्यो पानी महिती उपज्यो सूर।
सूर माही शीतलता उपजी शीतलता में सुख भरपूर।
ता सुख को क्षय होई ना कबहू सदा एकरस निकट न दूर।
सुंदर कहे सत्य यह यौ ही यामें रति न जानू कूर।

हंस चढ़यो ब्रह्मा के ऊपर गरुड़ चड्यो पुनि हरि की पिठी।
बैल चढ़यो है शिव के ऊपर सो हम देख्यो अपनी दीठी।
देव चढयो पाती के ऊपर जरख चड्यो डायन परी निठी।
सुंदर एक अचंभो हुओं पानी मा है जरे अंगीठी।

कपड़ा धोबी को गहि धोवत माटी बपुरी घरे कुंभार।
सुई बिचारी दरजीही सिवे सोना तावे पकरी सुनार।
लकड़ी बढ़ई को गहि छिलै खाल सु बैठी धवे लुहार।
सुंदरदास कहे सो ज्ञानी जो कोऊ याको करें विचार।।

जा घर माही बहुत सुख पायो ता घर माहि बसे अब कौन।
लागी सबे मिठाई खारी मिठो लग्यो एक वह लौन।
पर्वत उड़े रुई थिर बैठी ऐसो कोउक बाज्यो पौन।
सुंदर कहे न माने कोई ताते पकरी बैठी मुख मौन।।

रजनी माही दिवस हम देख्यो दिवस माही हम देखी राती।
तेल भरियो संपूर्ण तामें दीपक जरे जरे नहीं बाति।
पुरुष एक पानी मही प्रगटियो ता निगुरा की कैसी जाति।
सुंदर सोई लहे अर्थ को जो नित करें पराई ताती।।

उनियो मेघ घटा चंगुदिश ते बरसन लागौ अखंडित धार।
बूढ़ों मेरू नदी सब सुखी झर लागौ निशदिन एकसार।
कांसा परयौ बिजली के ऊपर क़ियों सब कुटुंब संहार।
सुंदर अर्थ अनुपम याको पंडित होई सु करें विचार।।

बाड़ी माहै माली निपज्यो हाली माहै नीपज्यो खेत।
हंसही उलटी श्याम रंग लागो भ्रमर उलटी करि हुवो सेत।
शशिहर उलटी राह को ग्रास्यो सूर उलटी करि ग्रास्यों केत।
सुंदर सुगरा को तजि भाग्यो निगूरा सेती बांध्यो हेत।।

अग्नि मथन करि लकरी काढ़ी सो वह लकरी प्राण अधार।
पानी मथी करि घीव निकारयो सो घृत खहिये बारम्बार।
दूध दही की इच्छा भागी जाकौ मथत सकल संसार।
सुंदर अब तो भये सुखारे चिंता रही ना एक लगार।।

पत्र माहि झोलि गहि राखे योगी भिक्षा मांगन जाई।
जागै जगत सोवई गोरख ऐसा शब्द सुनावे आई।
भिक्षा फुरे बहुत करि ताकौ सो वह भिक्षा चेलही खाई।
सुंदर योगी युग युग जिवै ता अवधु की दुरि बलाई।।

निर्दय होई तिरे पशु घातक दया वंत बूढ़े भव माहि।
लोभी लगे सबहनी को प्यारो निर्लोभी को ठाहर नाही।
मिथ्याबादी मिले ब्रह्म को सत्य कहें तै यमपुर जाहि।
सुंदर धूप माही शीतलता जलत रहे जे बेठे छाही।।

माई बाप तजि धी उमदानी हर्षत चली षसम के पास।
बहू बिचारी बड बखतावरी जाके कहै चलत है सास।
भाई खरों भलौ हितकारी सब कुटुंब को क़ीयो नास।
ऐसी बिधी घर बच्यो हमारो कही समुजावे सुन्दर दास।।

पर धन हरै करै पर निंदा पर धी कौ राखै घर माही।
मांस खाहि मदिरा पुनि पीवे ताहि मुक्ति कौ संशय नाहि।
अकर्म ग्रहे कर्म सब त्यागे ताकि संगति पाप नसाहि।
ऐसी कहै सु संत कहावें सुन्दर और उपजि मरि जाहि।।

बढ़ई चरखा भलौ सवारियों फिरने लाग्यों निकी भाती।
बहू सास को कही समूजावे तू मेरे ढिग बैठि काती।
नैन्हो तार न टूटे कबहुं पुनी घटे दिवस नहीं राती।
सुन्दर बिधि सो बुने जुलाहा षासा निपजै ऊंची जाति।।

घर घर फिरे कुमारी कन्या जने जने सो करती संग।
बेश्या सु तो भई पतिबरता एक पुरुष के लागी अंग।
कलियुग माहे सतयुग थाप्या पापी उदौ धर्म कौ भंग।
सुन्दर कहे सु अर्थहि पावे जौ निकै करि तजै अनंग।।

विप्र रसोई करने लागू चौका भीतरी बैठो आई।
लकड़ी माहे चूला दियो रोटी ऊपर तवा चढ़ाई।
खिचड़ी माहे हंडिया रांधी सालन आक धतूरा खाई।
सुंदर जीमत अति सुख पायो अब के भोजन कियो अघाई।। उलट ज्ञान के दोहे

बैल उल्टी नाइक को लाद्घौ बस्तू माही भरी गोनी अपार।
भली-भांति को सौदा कीयो आई दिसंतर या संसार।
नाइकनी पुनि हर्षत डोले मोही मिल्यों निकों भरतार।
पूंजी जाई शाह को सौंपी सुंदर सिर तै उतरिया भार।।

बनिक एक बनिजी कौ आयौ परै तावरा भारी भैठी।
भली वस्तु कछु लिनी दीनी खैची गठरीया बांधी ऐंठी।
सौदा कियो चल्यो पुनि घर कौ लेखा कियौ बरीतर बैठी।
सुन्दर साह खुशी अति हुवा बैल गया पूंजी मैं पैठी।।

पहराइत घर मुस्यौ साह को रक्षा करने लागो चोर।
कोतवाल काटो करी बांद्यौ छूटे नहीं सांझ अरू भोर।
राजा गांव छोड़ करि भागो हुवों सकल जगत में शोर।
प्रजा सुखी भई नगरी में सुंदर कोई जुल्म ना जोर।।

राजा फिरे विपत्ति को मारियो घर-घर ठुकरा मांगे भीख।
पाइ पयादो निशिदिन डोले घौरा चाली सके नहीं बिख।
आक अरंड की लकड़ी चुंखे छा बहुत रस भरे इख़।
सुंदर कोऊ जगत में विरलौ या मूर्ख को लावे सीख।। उलट ज्ञान के दोहे

पानी झरे पुकारे निशदिन ताको अग्नि बुजावे आई।
हूं शीतल तू तप्त भयौ क्यों बारंबार कहे समुजाई।
मेरी लपट तौही जो लागे तो तू भी शीतल हवे जाई।
कबहु जरनी फेरी नहीं उपजे सुंदर सुख में रहें समाई।।

खसम परियों जोरू के पीछे कह्यौ ना माने भांडो रांड।
जित तित फिरे भटकती याैही तै तौ किये जगत में भांड।
तौ हूं भूख न भागी तेरी तू गिलि बैठी सारी मांड।
सुंदर कहे सिस सुन मेरी अब तू घर घर फिरबौ छांड।।

पंथी माही पंथ चली आयो सो वह पंथ लख्यों नहीं जाई।
वाही पंथ चल्यौ उठी पंथी निर्भय देश पहुंच्यो आई।
तहां दुकाल परे नहीं कबहूं सदा सुभिक्ष रह्यौ ठहराही।
सुंदर दुखी ना कोय दिसत अक्षय सुख में रहे समाई।।

एक अहेरी बन में आयो खैलन लाग्यो भली शिकार।
कर में धनुष कमर में तरकस सावज घेरे बारंबार।
मारियो सिंह व्याघ्र पुनि मारियो मारी बहोरी मृगन की डार।
ऐसे सकल मारी घर ल्यायो सुंदर राजही कीयाे जुहार।। उलट ज्ञान के दोहे

शुक के बचन अमृतमय ऐसे कोकिल धार रहै मन माहीं।
सारो सुने भागवत कबहौ सारस तौऊ पावै नाही।
हंस चुगे मुक्ताफल अर्थहि सुन्दर मानसरोवर न्हाही।
काक कविश्वर बिषई जेते ते सब दौरि करकही जाहि।।

नष्ट होहिं द्विज भ्रष्ट क्रिया करी कष्ट किये नहीं पावे ठौर।
महिमा सकल गई तिनकेरी रहत पगन तर सब सिर मोर।
जित तित फिरही नहीं कछु आदर तिनकौ कोउ घालै क़ौर।
सुंदर दास कहे समुझावे ऐसी कोऊ करो मति और।।

शास्त्र वेद पुराण पढे किन पुनि व्याकरण पढे जे कोई।
संध्या करें गहै सट कर्म ही गुन अरु कॉल बिचारे सोई।
रासि काम तब ही बनी आवे मन में सब तजि राखे दौई।
सुंदर दास कही सुनी पंडित राम नाम बिनु मुक्त ना होई।।

आशा करता हूं दोस्तों सुंदर दास जी के इन उलट ज्ञान के दोहे विपर्याय छंदों को आपको बहुत पसंद आए होंगे अगर आप इनका का अर्थ जानना चाहते हैं तो इसी वेबसाइट के राइट साइड में सबसे ऊपर की तरफ कांटेक्ट अस लिखा हुआ है उसमें क्लिक करिए उसमें मेरा व्हाट्सएप नंबर दिया हुआ है आप मैसेज कर सकते हैं जो भी छंद का अर्थ आपको चाहिए वह छंद लिखकर व्हाट्सएप करने पर आपको उसका अर्थ सहित वापस भेजा जाएगा पोस्ट पसंद आई हो तो कृपया लाईक कमेंट शेयर जरूर करें धन्यवाद। ऐसे ही छंद और दोहे अगर आपको पढने के लिए यहां पर क्लिक करें कवि गंग के दोहे कबीर साहेब के बारे में जानकारी के लिए उलट ज्ञान के दोहे

bhaktigyans

My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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