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रसखान

रसखान

रसखान
रसखान

पूरा नाम – सैय्यद इब्राहीम (रसखान)

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जन्म – सन् 1540 से 1585 बीच (लगभग) 45 साल तक

जन्म भूमि – दिल्ली

कर्म भूमि – महावन (मथुरा)

कर्म-क्षेत्र – कृष्ण भक्ति काव्य

मुख्य रचनाएँ ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेमवाटिका’

विषय – सगुण कृष्णभक्ति

भाषा – साधारण ब्रज भाषा

विशेष योगदान – प्रकृति वर्णन, कृष्णभक्ति

नागरिकता – भारतीय

अन्य जानकारी – भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें “रसखान” का नाम सर्वोपरि है। raskhan ke savaiye

रसखान का संबंध बादशाही वंश से था वह दिल्ली के एक समृद्धिशाली पठान थे उनकी भाषा पर्याप्त परिमार्जित और सरस तथा काव्योचित थी ब्रज भाषा में जितनी उत्तमतासे अपने हृदय के भाव उन्होंने व्यक्त किया उतना और कवियों के लिए करना कष्ट साध्य था उनकी प्रमोदकष्ट विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने लौकिक प्रेम को भगवत प्रेम में रूपांतरित कर दिया असार संसार का परित्याग करके सदा सदा के लिए नंद कुमार के दरबार के सदस्य हो गये। एक समय कहीं भागवत कथा में उपस्थित थे व्यास गद्दी के पास श्याम सुंदर का चित्र रखा हुआ था उनके नयनों में भगवान का रूप माधुर्य समा गया उन्होंने प्रेममयी मीठी भाषा में व्यास जी से भगवान श्री कृष्ण का पता पूछा और ब्रज के लिए चल पड़े रास रसिक नंदनंदनम से मिलने के लिए विरही कवि का हृदय झूम झूठा वे अपनी प्रेमिका की बात सोचते जाते थे अभी थोड़े ही समय पहले उसने कहा था कि जिस तरह तुम मुझे चाहते हो उसी तरह यदि श्रीकृष्ण को चाहते तो भवसागर से पार उतर जाते पैर और वेग से आगे बढ़ने लगे उसी तरह नहीं उससे भी अधिक चाहने के लिए वे श्री कृष्ण की लीला भूमि में जा रहे थे अभी उन्होंने कल ही भागवत के फारसी अनुवाद में गोपी प्रेम के संबंध में विशेष रूप से प्रेम मयी स्पूर्ति पायी थी उन्होंने अपने मन को बार-बार धिक्कारा मूर्ख ने लोक बंधन में मुक्ति सुख मान लिया था उनके कंठ में भक्ति की मधुर रागिनी ने अमृत घोल दिया। बृजरज का मस्तक से स्पर्श होते ही भगवती का यमुना के जल की शीतलता के स्पर्श सुख से उत्तम समीर के मधुर कंपन की अनुभूति होते ही श्याम तमाल से अरूझी लताओं की हरियाली का नयनों में आलोडन होते ही वे अपनी सुध बुध खो बैठे संसार छूट गया भगवान में मन रम गया उन्होंने वृंदावन के ऐश्वर्य की स्तुति की भक्ति का भाष्य किया उन्होंने वृंदावन के जड़ जीव चेतन और जंगम में आत्मानुभूति की आत्मीयता देखी पहाड़ नदी और पक्षियों से अपने जन्म जन्मांतर का संबंध जोड़ा। और वे कह उठे:-

 

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान सदा इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग़ तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

 

सभी प्रकार के प्रेम की (चाहे वह लौकिक हो या अलौकिक) यह विशेषता है कि प्रेमी केवल अपने प्रेमपात्र से ही प्रेम नहीं करता बल्कि उस प्रेमपात्र से संबंध रखने वाली प्रत्येक वस्तु उसे अत्यन्त प्रिय लगने लगती है। रसखान की भी यही दशा है। इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वे कृष्ण की लकुटी और कामरी पर तीनों लोकों का राज्य त्यागने को तैयार हैं, नंद की गायों को चराने में वे आठों सिद्धियों और नवों निधियों के सुख को भुला सकते हैं, ब्रज के वनों एवं उपवनों पर सोने के करोड़ों महल निछावर करने को प्रस्तुत हैं- कितना अद्भुत आत्मसमर्पण था भाव माधुर्य था प्रेम सुधा का निरंतर पान करते वे ब्रज की शोभा देख रहे थे उनके पैरों में विरक्ति की बेडी थी हाथों में अनुरक्ति की हथकड़ी थी हृदय में भक्ति की बंधन मुक्ति थी रसखान के दर्शन से ब्रज धन्य हो उठा ब्रज के दर्शन से रसखान का जीवन सफल हो गया वे गोवर्धन पर श्रीनाथजी के दर्शन के लिए मंदिर में जाने लगे द्वारपाल ने धक्का देकर निकाल दिया श्रीनाथ जी के नयन क्रोध से लाल हो उठे इधर रसखान की स्थिति विचित्र थी उन्हें अपने प्राण ईश्वर श्याम सुंदर का भरोसा था अन् जल छोड़ दिया न जाने किन पापों के फल स्वरुप पौरियों ने मंदिर से निकाल दिया था तीन दिन बीत गए भक्त के प्राण कलप रहे थे उधर भगवान भी भक्त की भावना के अनुसार विकल थे रसखान पड़े पड़े सोच रहे थे:-

 

देश विदेश के देखे नरेशन रीझि की कोउ न बुझ करेगौ।

ताते तिन्हे तजि जान गिरहयो गुण सो गुन आवगुन गांठी परेगों।।

बांसुरी वारो बड़ों रिजवार है श्याम जो नैकू सुढार ढरेगो।

लाडिलो छैल वही तो अहीर की पीर हमारे हिये की हरेगो।।

 

अहीर के छैलने उनके हृदय की वेदना हर ही तो ली। भगवान ने साक्षात दर्शन दिये उसके बाद गोसाईं श्री विट्ठलनाथजी ने उनको गोविंद कुंड पर स्नान कराकर दीक्षित किया रसखान पूरे रसखानी हो गए। भगवान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पण का भाव उदय हुआ रसखान की काव्य साधना पूरी हो गई उनके नैनो ने गवाही दी:-

 

ब्रह्म मै ढूंढो पुराननि गाननि वेद रिचा सुनि चौगुने चा।

देख्यो सुन्यो कबहूं न किंतू वह कैसे स्वरूप औे कैसे सुभायान। टैरत टैरत हारी परियों रसखान बतायों न लोग लुगायन।

देख्यो दूरयों वह कुंज कुटीर में बैठयों पलोटतु राधिका पायन।।

 

शेष गणेश महेश दिनेश और सुरेश जिनका पार नहीं पा सके वेद अनादि अनंत अखंड अभेद कहकर न इति न इति के भ्रम सागर में डूब गये उनके स्वरूप का इतना भव्य रसमय दर्शन जिस सुंदर रीति से रसखान ने किया वह इतिहास की एक अद्भुत घटना है भक्ति साहित्य का रहस्यमय विचित्र चित्रण है वे जीवनपर्यंत ब्रज में ही भगवान की लीला को काव्य रूप देते हुए विचरण करते रहे। भगवान ही उनके एकमात्र प्रिय सखा और संबंधि थे। पैतालीस साल की अवस्था में उन्होंने भगवान के दिव्य धाम की यात्रा की। प्रेम देवता राधा रमण ने अंतिम समय में उनको दर्शन दिया था उन्होंने भगवान के सामने यही कामना की विदा वेलामें का केवल इतना ही निवेदन किया:-

 

मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

 

भक्तों के हृदय की विवशता का कितना मार्मिक आत्म निवेदन है यह भगवान की लीला से संबंधित तथ्यों स्थलों जीवो के प्रति कितनी समीचीन आत्मीयता है भगवान के सामने ही उनके प्राण चल बसे जिन के चरणों की रज के लिए कोटि-कोटि जन्मो तक मृत्यु के अधिदेवता यम तरसा करते हैं उन्होंने भक्त की कीर्ति को समुज्जवलतम और नितांत अक्षुण्ण रखने के लिए अपने ही हाथों से अंत्येष्टि क्रिया की प्रभु की कृपा का अंत पाना कठिन है असंभव है प्रेम के साम्राज्य में उनकी कृपा का दर्शन रसखान जैसे भक्तों के ही सौभाग्य की बात है।

संकर से सुर जाहिं जपैं चतुरानन ध्यानन धर्म बढ़ावैं।

नेक हिये में जो आवत ही जड़ मूढ़ महा रसखान कहावै।।

जा पर देव अदेव भुअंगन वारत प्रानन प्रानन पावैं।

ताहिं अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पे नाच नचावैं।।

संसार के अन्य लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार इन्द्र, सूर्य, गणेश आदि देवताओं की उपासना करते हैं। उनकी भक्ति करके अपने अभीष्ट फलों की प्राप्ति करते हैं। परन्तु रसखान की अनुरक्ति एकमात्र श्रीकृष्ण में ही है। उनका दृष्टिकोण उदार है। उनके मन में विभिन्न प्रकार के देवों और देवियों के भक्ति के विषय में कोई विरोधभाव नहीं है। वे दूसरों की निंदा नहीं करते। दूसरे लोग उन्हें भजना चाहते हैं तो भजें। रसखान की दृष्टि में भगवान श्रीकृष्ण ही भजनीय हैं। वे अपने कृष्ण को चाहते हैं। उन्हें त्रिलोक की चिंता नहीं—

 

सेष सुरेस दिनेस गनेस प्रजेस घनेस महेस मनावौ।

कोऊ भवानी भजौ मन की सब आस सबै बिधि जाई पुरावौ।

कोऊ रमा भजि लेहु महाधन कोउ कहूँ मनबाँदित पावौ।

पै रसखानि वही मेरो साधन, और त्रिलोक रहौ कि नसावौं।।

 

भगवान के प्रति परम प्रेम का उदय होने पर भक्त की सारी कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेंद्रियां, मन और प्राण सब ईश्वर निष्ठ हो जाते हैं। उसे इन सबकी सार्थकता केवल इस बात में दिखाई देती है कि ये सब अपना उपयोग केवल भगवान की महिमा के कीर्तन, श्रवण आदि में करें। रसखान का मत है कि रसखानि वही है जो रसखानि श्रीकृष्ण में परम अनुराग रखे-

बैन वही उनको गुन गाइ औ कान वही उन बैन सों सानी।

हाथ वही उन गात सरै अरु पाइ वही जु वही अनुजानी।

जान वही उन आन के संग औ मान वही जु करै मनमानी।

त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि ॥

 

इस ईश्वर प्रेम की उपलब्धि अपने में इतनी ऊँची है कि इसकी तुलना में संसार के सारे ऐश्वर्य तुच्छ दिखाई पड़ते हैं- raskhan-ke-savaiye

 

कंचन मंदिर ऊँचे बनाइ कै मानिक लाई सदा झलकैयत।

प्रात ही ते सगरी नगरी नग मोतिन ही को तुलानि तुलैयत।

जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मघवा ललचैयत।

ऐसे भए तो कहा रसखानि जो साँवरे ग्वार सो नेह न लैयत॥

 

खेलत फाग सुहाग भरी, अनुरागहिं लालन को धरि कै ।

भारत कुंकुम, केसर की पिचकारिन में रंग को भरि कै ॥

गेरत लाल गुलाल लली, मनमोहन मौज मिटा करि कै ।

जात चली रसखान अली, मदमस्त मनी मन कों हरि कै ॥

 

 

मोरपखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।

ओढ़ि पितम्बर लै लकुटी, बन गोधन ग्वारन संग फिरौंगी।।

भावतो मोहि मेरो रसखान, सो तेरे कहे सब स्वाँग भरौंगी।

या मुरली मुरलीधर की, अधरान धरी अधरा न धरौंगी।।

 

 

आवत है वन ते मनमोहन गाइन संग लसै ब्रज-ग्वाला ।

बेनु बजावत गावत गीत, अभीत इतै करिगौ कछु रत्याना ।

हेरत हेरित चकै चहुँ ओर ते झाँकी झरोखन तै ब्रजबाला ।

देखि सुआनन को रसखनि तज्यौ सब द्योस को ताप कसाला।।

 

 

जा दिनतें निरख्यौ नँद-नंदन, कानि तजी घर बन्धन छूट्यो।

चारु बिलोकनिकी निसि मार, सँभार गयी मन मारने लूट्यो॥

सागरकौं सरिता जिमि धावति रोकि रहे कुलकौ पुल टूट्यो।

मत्त भयो मन संग फिरै, रसखानि सुरूप सुधा-रस घूट्यो॥

 

 

कान्ह भये बस बाँसुरी के, अब कौन सखी हमको चहि है।

निसि द्यौस रहे यह आस लगी, यह सौतिन सांसत को सहि है।

जिन मोहि लियो मनमोहन को, ‘रसखानि’ सु क्यों न हमैं दहि है।

मिलि आवो सबै कहुं भाग चलैं, अब तो ब्रज में बाँसुरी रहि है।।

 

प्रान वही जु रहैं रिझि वापर, रूप वही जिहिं वाहि रिझायो।

सीस वही जिहिं वे परसे पग, अंग वही जिहीं वा परसायो

दूध वही जु दुहायो वही सों, दही सु सही जु वहीं ढुरकायो।

और कहाँ लौं कहौं ‘रसखान री भाव वही जू वही मन भायो॥

 

फागुन लाग्यौ सखि जब तें, तब तें ब्रजमंडल धूम मच्यौ है ।

नारि नवेली बचै नहीं एक, विसेष इहैं सबै प्रेम अच्यौ है ॥

साँझ-सकारे कही रसखान सुरंग गुलाल लै खेल रच्यौ है ।

को सजनी निलजी न भई, अरु कौन भटू जिहिं मान बच्यौ है ॥

 

गावैं गुनी गनिका गन्धर्व औ सारद सेस सबै गुण गावैं।

नाम अनन्त गनन्त गनेस जो ब्रह्मा त्रिलोचन पार न पावैं।।

जोगी जती तपसी अरु सिद्ध निरन्तर जाहिं समाधि लगावैं।

ताहिं अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पे नाच नचावैं। raskhan-ke-savaiye

 

नैन लख्यो जब कुंजन तै, बनि कै निकस्यो मटक्यो री।

सोहत कैसे हरा टटकौ, सिर तैसो किरीट लसै लटक्यो री।

को ‘रसखान कहै अटक्यो, हटक्यो ब्रजलोग फिरैं भटक्यो री।

रूप अनूपम वा नट को, हियरे अटक्यो, अटक्यो, अटक्यो री॥ raskhan-ke-savaiye

 

कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।

मोहिनि तानन सों रसखान, अटा चढ़ि गोधुन गैहै पै गैहै॥

टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहै।

माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

 

कर कानन कुंडल मोरपखा उर पै बनमाल बिराजती है

मुरली कर में अधरा मुस्कानी तरंग महाछबि छाजती है

रसखानी लखै तन पीतपटा सत दामिनी कि दुति लाजती है

वह बाँसुरी की धुनी कानि परे कुलकानी हियो तजि भाजती।। raskhan-ke-savaiye 

 

Wikipedia से सहभार

रसखान (जन्म:1548 ई) कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे। [1]उनका जन्म पिहानी, भारत में हुआ था। हिन्दी के कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन रीतिमुक्त कवियों में रसखान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे विट्ठलनाथ के शिष्य थे एवं वल्लभ संप्रदाय के सदस्य थे। रसखान को ‘रस की खान’ कहा गया है। इनके काव्य में भक्ति, शृंगार रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और उनके सगुण और निर्गुण निराकार रूप दोनों के प्रति श्रद्धावनत हैं। रसखान के सगुण कृष्ण वे सारी लीलाएं करते हैं, जो कृष्ण लीला में प्रचलित रही हैं। यथा- बाललीला, रासलीला, फागलीला, कुंजलीला, प्रेम वाटिका, सुजान रसखान आदि। उन्होंने अपने काव्य की सीमित परिधि में इन असीमित लीलाओं को बखूबी बाँधा है। मथुरा जिले में महाबन में इनकी समाधि हैं|

महाकवि रसखान की महाबन (जिला मथुरा) में स्थित समाधि

समाधि

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है। बोधा और आलम भी इसी परम्परा में आते हैं। सय्यद इब्राहीम “रसखान” का जन्म अन्तर्जाल पर उपलब्ध स्रोतों के अनुसार सन् 1533 से 1558 के बीच कभी हुआ था। कई विद्वानों के अनुसार इनका जन्म सन् 1548 ई. में हुआ था। चूँकि अकबर का राज्यकाल 1556-1605 है, ये लगभग अकबर के समकालीन हैं। इनका जन्म स्थान पिहानी जो कुछ लोगों के मतानुसार दिल्ली के समीप है। कुछ और लोगों के मतानुसार यह पिहानी उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में है।माना जाता है की इनकी मृत्यु 1628 में वृन्दावन में हुई थी । यह भी बताया जाता है कि रसखान ने भागवत का अनुवाद फारसी और हिंदी में किया है।

परिचय[संपादित करें]

रसखान के जन्म के सम्बंध में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। रसखान के अनुसार गदर के कारण दिल्ली शमशान बन चुकी थी, तब दिल्ली छोड़कर वह ब्रज (मथुरा) चले गए। ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त गदर सन् 1613 ई. में हुआ था। उनकी बात से ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस समय वयस्क हो चुके थे।

रसखान का जन्म संवत् 1548 ई. मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। भवानी शंकर याज्ञिक का भी यही मानना है। अनेक तथ्यों के आधार पर उन्होंने अपने मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है। यह मानना अधिक प्रभावशाली प्रतीत होता है कि रसखान का जन्म सन् 1548 ई. में हुआ था।

रसखान के जन्म स्थान के विषय में भी कई मतभेद है। कई विद्वान उनका जन्म स्थल पिहानी अथवा दिल्ली को मानते है। शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर रसखान का जन्म स्थान पिहानी जिला हरदोई माना जाए।

रसखान अर्थात् रस के खान, परंतु उनका असली नाम सैयद इब्राहिम था और उन्होंने अपना नाम केवल इस कारण रखा ताकि वे इसका प्रयोग अपनी रचनाओं पर कर सकें।[2]सखान तो रसखान ही था जिसके नाम में भी रस की खान थी।

 

आशा करता हूं दोस्तों यह रसखान के सवैये आपको पसंद आए होंगे और भी अधिक जानकारी के लिए रसखान का संपूर्ण जीवन परिचय रसखान के दोहे अगर आप कवि गंग के दोहे सुंदर दास जी महाराज के अभी गोकुल जाता हूं वाले दोहे आधी पढ़ना चाहते हैं तो इन उभरे हुए शब्दों पर क्लिक करें पूर्ण परमात्माा की जानकारी केे लिए यहां देखें

 

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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