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Shankaracharya Ji Ka Sankshipt Jivan Parichay

आदि शंकराचार्य जी का जीवन परिचय shankaracharya

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पूरा नाम – आदि शंकराचार्य जी

जन्म – 508 ईसा पूर्व

जन्म भूमि – कलांदी ग्राम, केरल

मृत्यु – 476 ईसा पूर्व

मृत्यु स्थान – केदारनाथ, उत्तराखण्ड

गुरु – स्वामी गोविन्द भगवद पाद

कर्म भूमि – भारत वर्ष

कर्म-क्षेत्र – दार्शनिक, संत, संस्कृत साहित्यकार, संन्यासी

मुख्य रचनाएँ – उपनिषदों, श्रीमद्भगवद गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखे हैं।

विशेष योगदान – चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है।

नागरिकता – भारतीय

अन्य जानकारी – हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में ही बीता है। shankaracharya

आदि शंकराचार्य जी का जीवन परिचय 

शंकरावतार श्री शंकराचार्य के जन्म समय के संबंध में बड़ा मतभेद है हिंदू धर्म के आचार्यों द्वारा रचित पुस्तक “हिमालय तीर्थ” के अनुसार जिसके संपादक है जेपी नंबूरी उप मुख्य कार्य अधिकारी श्री बद्रीनाथ केदारनाथ समिति; में वर्णित भविष्यवाणी के अनुसार अर्थात कलयुग के 3000 वर्ष बीत जाने पर बोद्ध मीमांसको के मत पर विजय प्राप्ति के लिए शंकर यति के रूप में आविर्भूत होंगे। ईसा मसीह जी से 508 वर्ष पूर्व जन्म हुआ प्रमाण के लिए। पुस्तक “ज्योतिर्मय ज्योतिरमठ” गुरु परंपरागत मठों के अनुसार आचार्य शंकर का आविर्भाव ईसा पूर्व 508 या 476 वर्ष माना जाता है जो की खरा उतरता है। मठों की परंपरा से भी यही बात प्रमाणित होती है अस्तु किसी भी समय हो केरल प्रदेश के पूर्णा नदी के तटवर्ती कलांदी नामक गांव में बड़े विद्वान और धर्म निष्ठ ब्राह्मण श्री शिव गुरु की धर्मपत्नी श्री सुभद्रा माता के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन इन्होंने जन्म ग्रहण किया था। इनके जन्म के पूर्व वृद्धावस्था निकट आ जाने पर भी इनके माता-पिता संतान हीन हीं थे अतः उन्होंने बड़ी श्रद्धा भक्ति से भगवान शंकर की आराधना की। Shankaracharya

भगवान शंकर द्वारा प्रसन्न होकर सर्वगुण संपन्न पुत्र रत्न प्राप्ति का वरदान देना

उनकी सच्ची और आंतरिक आराधना से प्रसन्न होकर आशुतोष देवाधिदेव भगवान शंकर प्रकट हुए और उन्हें एक सर्वगुण संपन्न पुत्र रत्न होने का वरदान दिया इसी के फलस्वरूप न केवल एक सर्वगुण संपन्न पुत्र ही बल्कि स्वयं भगवान शंकर को ही इन्होंने पुत्र रूप में प्राप्त किया नाम भी उनका शंकर ही रखा गया। बालक शंकर के रूप में कोई महान विभूति अवतरित हुई है। shankaracharya

 बालक शंकर में अद्भुत विलक्षण प्रतिभा

इसका प्रमाण बचपन से ही मिलने लगा 1 वर्ष की अवस्था होते-होते बालक शंकर अपनी मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगे और 2 वर्ष की अवस्था में माता से पुराण आदि की कथा सुनकर कंठस्थ करने लगे 3 वर्ष की अवस्था में उनका चूड़ाकर्म करके उनके पिता स्वर्गवासी हो गए पांचवें वर्ष में यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरु के घर पढ़ने के लिए भेज दिया गया और केवल 7 वर्ष की अवस्था में ही वेद वेदांत और वेदांगों का पूर्ण अध्ययन करके वे घर वापस आ गए उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन आचार्य चकित रह गए विद्या ज्ञान समाप्त कर शंकर ने सन्यास लेना चाहा परंतु जब उन्होंने माता से आज्ञा मांगी तब उन्होंने ना ही कर दी। शंकर माता के बड़े भक्त थे उन्हें कष्ट देकर सन्यास लेना नहीं चाहते थे 1 दिन माता के साथ वे नदी में स्नान करने गए उन्हें एक मगर ने पकड़ लिया इस प्रकार पुत्र को संकट में देखकर माता के होश उड़ गए वह बेचैन होकर हाहाकार मचाने लगी शंकर ने माता से कहा मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दे दो तो मगर मुझे छोड़ देगा माता ने तुरंत आज्ञा दे दी और मगर ने शंकर को छोड़ दिया। shankaracharya

घर छोड़कर सन्यास के लिए प्रस्थान एवं गुरु दीक्षा

इस तरह माता की आज्ञा प्राप्त कर वे 8 वर्ष की उम्र में ही घर से निकल पड़े जाते समय माता की इच्छा के अनुसार यह वचन देते गए कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर उपस्थित रहूंगा। घर से चलकर शंकर नर्मदा तट पर आए और वहां स्वामी गोविंद भगवत पाद से दीक्षा ली गुरु ने इनका नाम भगवत पूज्यपादाचार्य रखा इन्होंने गुरुपदिष्ट मार्ग से साधना आरंभ कर दी और अल्पकाल में ही बहुत बड़े योग सिद्ध महात्मा हो गए इनकी सिद्धि से प्रसन्न होकर गुरु ने इन्हें काशी जाकर वेदांत सूत्र का भाष्य लिखने की आज्ञा दी। Shankaracharya

गुरु आज्ञा से  काशी प्रस्थान एवं काशी विश्वनाथ का चांडाल के रूप में दर्शन

और तदनुसार यह काशी चले गए काशी आने पर इनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकर्षित होकर उनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे इनके सर्व प्रथम शिष्य सनंदन हुए जो पीछे पद्माचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए काशी में शिष्यों को पढ़ाने के साथ-साथ यह ग्रंथ भी लिखते जाते थे। कहते हैं। 1 दिन भगवान विश्वनाथ ने चांडाल के रूप में इन्हें दर्शन दिए और इनके पहचान कर प्रणाम करने पर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने और धर्म के प्रचार करने का आदेश दिया। इसके बाद इन्होंने काशी कुरुक्षेत्र बद्रिकाश्रम आदि की यात्रा की विभिन्न मत वादियों को परास्त किया और बहुत से ग्रंथ लिखे प्रयाग आकर कुमारिलभट्ट से उनके अंतिम समय में भेंट की और उनकी सलाह से महिष्मति में मंडन मिश्र के पास जाकर शास्त्रार्थ किया शास्त्रार्थ में मंडन की पत्नी भारती मध्यस्थता थी अंत में मंडन ने शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा। shankaracharya

शंकराचार्य जी द्वारा मठों की स्थापना

तत्पश्चात आचार्य ने विभिन्न मठों की स्थापना की और उनके द्वारा आप निश्चित सिद्धांत की शिक्षा दीक्षा होने लगी। स्थापित मठ – ज्योतिषपीठ बद्रीनाथ, गोवर्धनपीठ पुरी, शारदापीठ द्वारिका, श्रृंगेरीपीठ मैसूर इन चार मठ और बावन मढ़ीयो की विस्तृत जानकारी आगे के अंक में प्रकाशित करेंगे। shankaracharya

कापालिक ने मांगा शंकराचार्य जी का सिर

एक बार एक कापालिक ने आचार्य से एकांत में प्रार्थना की कि आप तत्वग्य है आपको शरीर का मोह नहीं मैं एक ऐसी साधना कर रहा हूं जिसके लिए मुझे एक तत्वज्ञ के सिर की आवश्यकता है। यदि आप देना स्वीकार करें तो मेरा मनोरथ पूर्ण हो जाए आचार्य ने कहा भाई किसी को मालूम ना होने पाए मैं अभी समाधि लगा लेता हूं तुम सिर काट ले जाना आचार्य ने समाधि लगायी और वह सिर काटनेवाला ही था कि पदमाचार्य के इष्ट देव नरसिंह भगवान ने ध्यान करते समय उन्हें सूचना दे दी उन्हें और पद्मपाद ने आवेश में आकर उसे मार डाला आचार्य ने अनेकों मंदिर बनवाए अनेकों को सन्मार्ग में लगाया और कुमार्ग का खंडन करके भगवान के वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया इन्होंने मार्ग में सभी मतों की उपयोगिता यथा स्थान स्वीकार की है। और सभी साधनों से अंतःकरण शुद्ध होता है ऐसा माना है अंतः करण की शुद्ध होने पर ही वास्तविकता का बोध हो सकता है। अशुद्ध बुद्धि और मन के निश्चय एवं संकल्प भ्रमात्मक ही होते हैं। अतः इनके सिद्धांत में सच्चा ज्ञान प्राप्त करना ही परम कल्याण है और इसके लिए अपने धर्म अनुसार कर्म योग भक्ति अथवा और भी किसी मार्ग से अंतःकरण को शुद्ध बनाते हुए वहां तक पहुंचना चाहिए। भगवान शंकर ने भक्ति को ज्ञान प्राप्ति का प्रधान साधन माना है तथापि वे स्वयं बड़े भक्त थे कुछ लोग उन्हें “प्रच्छन्न बौद्ध” कहते हैं परंतु वस्तुतः वे ज्ञानसिद्धांत के अंतराल में छिपे महान भक्त थे अतः उन्हें प्रच्छन्न भक्त कह सकते हैं। प्रबोदसुधाकर के नीचे उद्धृत श्लोकों से तो यह सिद्ध होता है कि आचार्यपाद भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे और उनकी वनभोजन लीला की झांकी किया करते थे और उनसे प्रार्थना करते थे नीचे उस झांकी तथा प्रार्थना को देखिए:- shankaracharya

भगवान श्री कृष्ण की वनभोजन लीला झांकी का वर्णन

श्रीयमुना जी के तट पर स्थित वृंदावन के किसी महा मनोहर बगीचे में जो कल्प वृक्ष के नीचे की भूमि में चरण पर चरण रखे बैठे हैं जो मेघ के समान श्याम वर्ण है और अपने तेज से इस निखिल ब्रह्मांड को प्रकाशित कर रहे हैं जो सुंदर पितांबर धारण किए हुए हैं तथा समस्त शरीर में कर्पूर मिश्रित चंदन का लेप लगाए हुए हैं जिनके कर्णपर्यंत विशाल नेत्र है कान कुंडल के जोड़े से सुशोभित है मुख कमल मंद मंद मुस्कुरा रहा है तथा जिनके वक्ष स्थल पर कौस्तुभमणि युक्त सुंदर हार है और जो अपनी कांति से कंकण और अंगूठी आदि सुंदर आभूषणों की भी शोभा बढ़ा रहे हैं जिनके गले में वनमाला लटक रही है और अपने तेज से जिन्होंने कलिकाल को परास्त कर दिया है तथा जिनका गुंजावाली विभूषित मस्तक गूंजते हुए भ्रमर समूहों से सुशोभित है किसी कुंज के भीतर बैठकर ग्वाल बालों के साथ भोजन करते हुए उन श्री हरि का स्मरण करो। shankaracharya

जो कल्पवृक्ष के पुष्पों की गंध से युक्त मंद मंद वायु से सेवित है परम आनंद स्वरूप है तथा जिन के चरण कमलों में श्री गंगा जी विराजमान है उन आनंद दायक महापुरुष को नमस्कार करो। shankaracharya

जिन्होंने समस्त दिशाओं को सुगंधित कर रखा है जो चारों ओर से सैकड़ों कामधेनु गौओ से गिरे हुए हैं तथा देवताओं के भय को दूर करने वाले और बड़े-बड़े राक्षसों के लिए भयंकर है उन यदुनंदन को नमस्कार करो। shankaracharya

जो करोड़ों कामदेवों से भी सुंदर है वांछित फल के देने वाले हैं दया के समुंद्र है उन श्री कृष्ण चंद्र को छोड़कर यह नेत्र युगल और किस विषय को देखने के लिए उत्सुक होते हैं ।shankaracharya

जिन्होंने ब्रह्मा जी को अनेक ब्रह्मांड प्रत्येक ब्रह्मांड में पृथक पृथक अति अद्भुत ब्रह्मा वत्सोके सहित समस्त गोप तथा भिन्न-भिन्न ब्रह्मांडो के समस्त विष्णु दिखाये और जिन के चरणोंदक को श्रीशंकर अपने सिरपर धारण करते हैं वे श्री कृष्ण त्रिमूर्ति ब्रह्मा विष्णु महेश से भिन्न कोई अविकारिणी सच्चिदानंदमयि नीलिमा है। shankaracharya

त्रिपुरारी शिव और कमलासन ब्रह्मा जिनकी कृपा के पात्र हैं परम पावनी श्री गंगा जी जिनके चरण कमल चरण का भवन है तथा त्रिलोकी का राज्य जिनका दान है वह सर्व व्यापक और हम सब के आदि कारण तथा कुल देव श्री यदुनाथ सदा सदा विजय हो रहे हैं।

हे कृष्णनाम्रनी मातेश्वरी मोह रूपी मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए मुझ पुत्र को भरण-पोषण के लिए माया के हाथों में सौंप कर तू बहुत दिनों से मेरी ओर से उदासीन हो गई है अरी एकमात्र करुणामयी मैया तू एक बार भी मेरे मुख की ओर नहीं देखती है? सर्वज्ञ! क्या तू उस मोह रूपी मूल की शांति करने में समर्थ नहीं है?

नित्यानंद रूपी अमृत के समुद्र में निकला हुआ और सज्जनों की उत्कंठा रूप प्रबल वायु से उड़ा कर लाया हुआ सतस्वरूप नील मेघ तेरे पास ही अद्भुत विज्ञानामृत कि अपने वचन रूपी धाराओं से वर्षा कर रहा है। अरे चित रूपी पपिहे! यदि तुझे उसे पीने की इच्छा नहीं होती तो तुझे व्यर्थ ही किसी ने पकड़ रखा है या तू सो गया है? Shankaracharya

अरे चित! चंचलता को छोड़कर अपने सामने तराजू के दोनों पलडो को रख उनमें से एक में समस्त विषयों को और दूसरे में भगवान श्रीपति को रख उन दोनों में से किसमें अधिक शांति और हित है इसका विचार कर और युक्ति तथा अनुभव से जिसमें परम आनंद की प्रतीति हो उसी का सेवन कर।

कोई लोग तो सकाम उपासना के द्वारा नित्य प्रति अपने किसी अभीष्ट फल की प्रार्थना किया करते हैं और कोई योग तथा यज्ञ आदि अन्य साधनों से स्वर्ग और अपवर्ग की याचना करते हैं किंतु श्री यदुनाथ के चरण कमलों के ध्यान में ही सदा लगे रहने के इच्छुक हमलोगों को लोके से, दम से, राजा से, स्वर्ग से, और मोक्ष से क्या काम है। Shankaracharya

जिनका कोई अन्य आश्रय नहीं है ऐसे कछुई के बच्चे जिस प्रकार दूध आदि आहार के बिना ही केवल माता की स्नेहदृष्टि से ही पलते हैं उसी प्रकार अनन्य भक्त भी भगवान की दया दृष्टि के सहारे ही जीवन निर्वाह करते हैं।इससे भगवान श्री कृष्ण के संबंध में इनकी अनुभूति और भक्ति का पता लग जाता है। shankaracharya

 

शंकराचार्य जी द्वारा रचित सद ग्रंथ

इनके द्वारा रचित ग्रंथों की बड़ी लंबी सूची है परंतु प्रधान प्रधान ग्रंथ है यह है:- ब्रह्मसूत्रभाष्य उपनिषद, (ईश, कैन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, एतरेय, तैतरीय, छादोग्य,बृहदारण्यक, नृसिहपूर्वतापनिय, श्वेताश्वतर,आदि) गीता भाष्य, विष्णुसहस्त्रनामभाष्य, सनत्सुजातिय भाष्य, हस्तमालकभाष्य, ललितात्रीशतीभाष्य, विवेक चूड़ामणि, प्रबोद सुधाकर, उपदेश साहस्त्री, अपरोक्षानुभूति, सप्त श्लोकी, दशश्लोकी, सर्ववेदांतसिद्धांतसारसंग्रह, वाक्यसुधा, पंचिकरण, प्रपंचसार, आत्मबोध, मनीषापंचक, आनंदलहरी, विविध स्तोत्र इत्यादि। इनका सिद्धांत भी बहुत ऊंचा था तथा अधिकारी पुरुषों के ही समझने की चीज है सभी देशों के दार्शनिकों ने उसके सामने सिर झुकाया है और सभी विचार शीलों ने मुक्त कंठ से उसकी महिमा का गान किया है। shankaracharya

उम्मीद करता हूं दोस्तों शंकराचार्य जी के उपलक्ष में लिखी हुई यह पोस्ट आपको जरूर पसंद आई होगी और भी सती अनुसूया की कथा और महर्षि अत्रि ऋषि की कथा को पढ़ने के लिए क्लिक करेंं

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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