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भारत के क्रांतिकारी के नाम

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भारत के क्रांतिकारी के नाम

भारत के क्रांतिकारी के नाम
भारत के क्रांतिकारी के नाम

स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी क्रांतिकारी

1 मंगल पाण्डेय :- जन्म: 19 जुलाई, 1827, शहादत: 8 अप्रैल, 1857 मंगल पाण्डेय का जन्म 19 जुलाई, 1827 को फैजाबाद के सुरडरपुर गांव ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों में गाय और सुअर की चर्बी से चिकनाए हुए (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। वे बैरकपुर में 34वीं रेजीमेंट में सिपाही था। कारतूसों के प्रयोग पर असंतोष था। सभी को 31 मई का इंतजार था। लेकिन मंगल पाण्डेय अपनी भावनाओं से नियंत्रण खो बैठे। उन्होंने 29 मार्च को परेड ग्राउंड में अंग्रेजी सत्ता को खुली चुनौती दे दी। उन्होंने सार्जेंट मेजर ह्यूसन एवं ले. बाग को घायल कर रण-घोष करके भारतीय सैनिकों को चेताया, “धर्म और ईमान पर हैवानियत के अत्याचारों को कब तक बर्दाश्त करते रहोगे? उढो। जागो। समाप्त कर दो इस दानवी सत्ता को ।” भारतीय सैनिकों में से केवल ईश्वरी पांडे ने मंगल पांडे का साथ दिया। लेकिन तुरंत यूरोपियन सैनिकों ने मंगल पाण्डेय को गिरफ्तार कर लिया। उसने अपनी बन्दूक से आत्म-बलिदान करने का असफल प्रयास किया। मंगल पाण्डेय को दिनांक 8 अप्रैल, 1857 को वैरकपुर में ही फांसी दे दी गई। इसके बाद 19वीं और 34वीं रेजीमेंट के  भारत के क्रांतिकारी के नाम
भारतीय सैनिकों से हथियार रख लिये गये। लेकिन उन सैनिकों ने स्वयं भी सहर्ष अंग्रेजी दासता अस्वीकार कर अपनी वर्दी फाड़ दी तथा दासता के प्रतीक टोपियां हवा में उड़ा कर फेंक दीं।

2 पं. चन्द्रशेखर आजाद :- जन्म: 23 जुलाई, 1906, उ.प्र., शहादत: 27 फरवरी 1931 दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आज ही रहेंगे” मातृभूमि के चरणों में बलिदान होने वाले अमर स्वतंत्रता सेनानियों के स्वर्णाक्षरों भारत के क्रांतिकारी के नाम
में अंकित किए जाने योग्य नामों में प्रमुख नाम है पं. चन्द्रशेखर आजाद जी का। वीर, लक्ष्यभेद में निपुण, अप्रतिम संगठन क्षमता के धनी, वेश बदलने में प्रवीण, पं. चन्द्रशेखर आजाद जी का जन्म 23/07/1906 को पं. सीताराम जी तिवारी और माता जगरानी देवी जी के घर भावरा, मध्य प्रदेश में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही मिली और आगे काशी विद्यापीठ में प्रवेश लिया। मात्र 14 वर्ष की आयु में जलियांवाला बाग नरसंहार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार हुए और मजिस्ट्रेट के पूछने पर अपना नाम “आजाद”, पिता का नाम स्वतंत्रता, पता जेल बताकर 15 कोड़ा की सजा पाई। यहीं से इनके नाम के साथ आज़ाद शब्द जुड़ गया। क्रांतिकारी दल “हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन” के सदस्य बने और क्रांतिकारी काकोरी केस घटना में 10 अन्य प्रमुख साथियों के साथ भाग लिया। अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने में सफल रहे व सभी फरार हुए। बाद में पुलिस की कार्रवाई में 05 साथी बलिदान हुए तथा पं. रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, ठाकुर रोशन सिंह और राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी पकड़े गए, जिन्हें बाद में काकोरी तथा अन्य मामलों में फांसी की सजा हुई। वहां उन्होंने सरदार भगत सिंह के साथ मिलकर एक नया संगठन खड़ा किया “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन।” सांडर्स वध, असेंबली बम काण्ड तथा कई अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने के कारण पुलिस का दबाव रहा और आजाद जी ने अपने मित्र मास्टर रुद्र नारायण सक्सेना जी के घर शरण ली। इसी घर के तलघर का प्रयोग वे छुपने और गुप्त बैठकें करने में करते थे। भारत के क्रांतिकारी के नाम

3 महारानी लक्ष्मीबाई :- जन्म: 19 नवम्बर 1828, उ.प्र., शहादत: 18 जून 1858 महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर, 1828 को काशी में हुआ था। इनका विवाह झांसी के राजा राव गंगाधर के साथ हुआ, लेकिन वह शीघ्र ही स्वर्ग सिधार गये। 13 मार्च सन् 1854 झांसी राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और महारानी को अंग्रेजों द्वारा 5000 रुपया मासिक पेंशन की घोषणा कर दी गई। इससे महारानी के स्वाभिमान को गहरी चोट पहुंची। रानी ने पेंशन लेने से मना कर दिया और किराये के मकान में रहकर अंग्रेजों से बदले की तलाश में रहने लगीं। उधर मंगल पाण्डेय ने सैनिक विद्रोह का श्रीगणेश कर दिया था। इधर नाना साहब व अजीमुल्ला खान ने 1857 की सशस्त्र क्रांति की योजना तैयार कर ली। 4 जून, 1857 को रानी ने अवसर पा कर झांसी को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया और घोषणा करा दी,”खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का, हुक्म लक्ष्मीबाई का”। परन्तु रानी को सदैव अपनों से धोखा मिला। पहले एक संबंधी ने आक्रमण किया। फिर ओरछा का दीवान 20,000 की सेना ले झांसी पर आ धमका। रानी ने दोनों को ही परास्त किया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

4 बाल गंगाधर तिलक :- जन्म: 23 जुलाई, 1856, कोंकण, मृत्युः 1 अगस्त, 1920 लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म कोंकण प्रदेश (महाराष्ट्र) के चिखलगांव में 23 जुलाई, 1856 को गंगाधर पंत तिलक के पुत्र के रूप में हुआ था। तिलक ने कानून की परीक्षा पास कर जीवन भर देश-सेवा का व्रत धारण किया। इन्होंने राष्ट्रीय भावना के संचार हेतु 1881 में ‘मराठा’ ‘अंग्रेजी’ व ‘केसरी’ मराठी पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। 1893 में इन्होंने ‘गणपति’ व ‘शिवाजी’ महोत्सवों की धूम मचा दी। महाराष्ट्र में 1886 में प्लेग व 1897 में अकाल के समय जनसेवा से किसानों का मन जीता। इनकी ख्याति के कारण सरकार ने झूठे केसों में फंसा कर इनको गिरफ्तार कर डेढ़ साल की सजा सुना दी। सजा काट कर वह बाहर निकले। 1908 में तिलक जी ने 12 गई एवं 9 जून के अपने पत्रों में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध ‘देशाचे दुदैव’ एवं ‘हे उपाय टिकाऊ नाहीत’ दो लेख लिखे। इन लेखों पर तिलक के विरुद्ध मुकदमा चलाया गया। तिलक जी ने जेल में गीता रहस्य अपने ऐतिहासिक ग्रंथ की रचना की। जेल से छूटते ही बाल गंगाधर तिलक ने ‘होमरुल’ आंदोलन छेड़ दिया और निरंतर 18 महीने तक देश में घूम-घूम कर क्रांति की ज्योति प्रज्जवलित करते रहे। ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ घोषणा कर ब्रिटिश सरकार को खुली चुनौती दे डाली। अब तिलक का स्वास्थ्य जवाब दे चुका था। अतरू आंदोलन की बागडोर महात्मा गांधी को सौंप, 1 अगस्त, 1920 को वह इस दुनिया से चल बसे। भारत के क्रांतिकारी के नाम

5 वीर बैरागी बंदा बहादुर :- जन्म: 27 अक्टूबर 1670, जम्मू, शहादतः जून 9, 1716, दिल्ली वीर बैरागी बंदा बहादुर का आरंभिक नाम वीर लक्ष्मण देव भारद्वाज था आपका जन्म जम्मू राजौरी में 27 अक्टूबर 1670 डोगरा परिवार में हुआ। आगे चलकर आपका नाम महंत माधव दास बैरागी पड़ा जो बाद में वीर बंदा बैरागी के नाम से विश्व विख्यात हुआ। भारत के इतिहास में आप पहले भारतीय हैं जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा। पूज्य गुरु गोविंद सिंह जी के कहने पर महंत माधव दास वीर बंदा बैरागी बन जाता है और गुरू गोविंद सिंह जी के छोटे साहिबजादे के बलिदान का बदला लेने के लिए तैयार होता है और सरहद के नवाब वजीर खान को मौत के घाट उतार देते हैं इसके पश्चात गुरु गोविंद सिंह जी के द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता संपन्न लोग राज्य की राजधानी लोहगढ़ को बनाकर स्वराज्य की स्थापना करते हैं और वहां पर पूज्य गुरु नानक देव और पूज्य गुरु गोविंद सिंह जी के नाम के सिक्के और मोहरे जारी करते हैं तथा अपने राज्य में निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिला कर उन्हें सम्मानित करते हैं जो हल वाहक मजदूर उन्हें जमीन का मालिक बनाते हैं और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करते हैं, आप की प्रसिद्धि पूरे भारत में फैलती है। आप पंजाब के आसपास के इलाकों को मिलाकर एक शरण स्वराज्य की स्थापना करते हैं। आपका कार्यकाल 1708 से लेकर 1716 तक का स्वर्णिम काल कहलाता है। भारत के क्रांतिकारी के नाम

6 चाफेकर बंधु :- जन्म: 1869 एवं 1873, पुणे, शहादतः 1898 एवं 1899 दामोदर हरि चाफेकर एवं बालकृष्ण हरि चाफेकर का जन्म क्रमशः 25 जून,  1869 एवं 1873, चिंचवाड, पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ था। महाराष्ट्र में गंगाधर तिलक की प्रेरणा से अनेक ऐसे संगठन कार्य कर रहे थे जिनका उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन की समूल नष्ट करना था कृष्ण वसुदेव तीनों सगे चाफेकर भाई ऐसे ही दल के सदस्य थे। 1997 में प्लेग महामारी फैली। दामोदर हरि चाफेकर ने अपने साथियों के 22 जून 1897 को रेण्ड का वध कर दिया। उसके पूर शहर के लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। लोग मन ही दुआएं देने लगे। इन्हीं के दल में शामिल गणेश शंकर और रामचन्द्र दो भाइयों ने इनाम के लालच में पुलिस को भेद दे दिया। दामोदर
लिये गये। उन्हें 8 अप्रैल, 1898 को फांसी दे दी गई। भारत के क्रांतिकारी के नाम

7 बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय :- जन्म: 26 जून, 1838, उ.प्र., मृत्युः 8 अप्रैल, 1894 चॉकम चन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म प. बंगाल के कंतलपाड़ा गांव में 26 जून, 1838 को डिप्टी कलेक्टर यादवचन्द्र के पुत्र के रूप में हुआ था। आप बंगला शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। 1876 में उन्होंने ‘वन्देमातरम’ गीत की रचना की। 1882 में इस गीत को उन्होंने ‘आनन्द मठ’ उपन्यास में स्थान दिया। 1896 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत को संगीत प्रदान किया एवं इसे कांग्रेस के अधिवेशन में गाया। इसके बाद तो ‘वन्देमातरम’ स्वतंत्रता सेनानियों के गले का हार बन गया। फलस्वरूप तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इस गीत पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन प्रतिबंध के बाद भी क्रांतिवीर वन्देमातरम को एक नारे के रूप में प्रयोग में लाने लगे। इस गीत का केवल एक ही शब्द ‘वन्देमातरम’ ब्रिटिश सरकार को शक्तिशाली बम की तरह विचलित कर देता था। बकिम चन्द्र ने ‘वन्देमातरम’ गीत के रूप में क्रांतिवीरों को एक सशक्ता हथियार प्रदान किया और वह अमर हो गये। ‘वन्देमातरम’ शब्द को ही लेकर बाद में अनेक क्रांतिकारी गीतों की रचना हुई, जिन्होंने ब्रिटिश सिंहासन को हिला दिया। वन्देमातरम गीत का पहला शब्द ‘वन्देमातरम’ भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का उद्घोष बन गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

8 विनायक दामोदर सावरकर :- जन्म: 28 मई, 1883, उ.प्र., मृत्युः 26 फरवरी, 1966 विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई सन् 1883 की महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में श्री दामोदर तथा राधाबाई के पुत्र के रूप में हुआ था। विनायक सावरकर ने लोकमान्य तिलक के क्रांतिकारी विचारों से प्रेरणा प्राप्त करके किशोर अवस्था में ही राष्ट्र की स्वाधीनता के यज्ञ में आहुति देने का संकल्प ले लिया था। सन् 1905 में पुणे में छात्रवस्था के दौरान उन्होंने श्री तिलक जी की उपस्थिति में विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर हलचल मचा दी थी। लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से श्यामजीकृष्ण वर्मा ने उन्हें 1906 में अध्ययन के लिए लन्दन बुलवा लिया। वहां ‘इंडिया हाउस’ में रहकर उन्होंने भारतीय छात्रों को स्वाधीनता आंदोलन की ओर उन्मुख किया। इस बीच सावरकर ने ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ ऐतिहासिक ग्रंथ की रचना की। यह ऐतिहासिक ग्रंथ प्रकाशित होने से पूर्व ही जब्त कर लिया गया था। लंदन में मई 1907 में उन्होंने 1857 के स्वातंत्र्य समर की अर्थ शताब्दी मनाकर ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। सावरकर जी के भगत मदनलाल ढींगरा ने 1 जुलाई, 1908 को लंदन में सर करजन वायली की हत्या कर पूरे संसार तक भारतीय स्वाधीनता का उद्घोष पहुंचाया। सावरकर जी को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राजद्रोह करने व बम-पिस्तौलें भारत भेजने का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चलाया गया। 30 जनवरी, 1911 को उन्हें दो आजन्म कारावासों की सजा देकर कुछ दिन डोंगरी व अन्य जेलों में रखने के बाद अंडमान भेज दिया गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

9 स्वामी श्रद्धानंद :- जन्म: 22 फरवरी 1856 जालंघर, मृत्युः 23 दिसम्बर 1926 स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 1856 में जालंधर के तलवन गांव पंजाब में लाला नानकचंद के पुत्र के रूप में हुआ था। उनका पूर्व नाम मुंशी राम था। महर्षि स्वामी दयानंद एवं उनके ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के संपर्क में उन्हें आर्य समाज के सिद्धांतों का कट्टर समर्थक बना दिया। कन्या महा. विद्यालय जालंधर मुंशीराम की ही देन है। सन् 1900 के बाद आर्य समाज पर ब्रिटिश सरकार ने अनेक अभियोग लगाये क्योंकि आर्य समाज देश और राष्ट्र पर प्राण न्यौछावर करने की शिक्षा देता था। 1902 में मुंशीराम ने गुरुकुल कांगड़ी की नींव डाली। गुरुकुल कांगड़ी पर भी ब्रिटिश सरकार की दृष्टि बनी रहती थी। 1917 में मुशीराम ने संन्यासाश्रम में प्रवेश किया। अब वह मुंशीराम श्रद्धानंद बन गये। 1919 में रोलेट एक्ट का विरोध करने हेतु स्वामी श्रद्धानंद खुलकर ब्रिटिश सरकार के विरोध में खड़े हो गये। 30 मार्च, 1919 को दिल्ली में रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए जुलूस पर पुलिस ने बन्दूकें तान दीं। तब वह सीना तान कर बन्दूको के आगे खड़े हो गये और बोले, ‘यदि छेदना ही है तो पहले मेरा सीना। छेदिये।’ तुरंत बन्दूक झुक गई। एक मजहबी उन्मादी की गोली का शिकार। होकर 23 दिसम्बर,1926 को उन्होंने भारतीय संस्कृति की वेदी पर अपने जीवन की आहुति दे दी। भारत के क्रांतिकारी के नाम

10 शंकराचार्य स्वामी भारतीय कृष्ण तीर्थ :- जन्म: मार्च 1884, जालंधर, मृत्यु: 2 फरवरी, 1960 जगन्नाधपुरी के विश्वविद्यालय गणितज्ञ शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ एक महान स्वाधीनता सेनानी थे जिन पर अंग्रेजों ने जनता को विद्रोह के लिए भड़काने के आरोप में जेल में बन्द कर मुकदमा चलाया था। उन्होंने मातृभूमि
को विदेशियों से मुक्ति दिलाने के कार्य को पूर्ण धर्मसम्मत बताकर अंग्रेजों को खुली चुनौती दी थी। मार्च 1884 में चेन्नई के तित्रिवेलि नगर में पी. नरसिंह शास्त्री के पुत्र के रूप में जन्में स्वामोजी जन्मजात असाधारण प्रतिभाशाली थे। केवल 15 वर्ष की आयु में उन्हें मद्रास के संस्कृत संस्थान की और से ‘सरस्वती’ की उपाधि से अलंकृत किया गया था। मात्र 20 वर्ष की आयु में विषयों में स्नातकोत्तर परीक्षाएं उच्चतम सम्मान सहित उत्तीर्ण कर उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किया। शृंगेरी के परम विद्वान शंकराचार्य स्वामी नरसिंह भारती के पास रहकर उन्होंने वेदान्त-दर्शन का अध्ययन व ब्रह्म साधना की। युवावस्था में लोकमान्य तिलक तथा पं. मदनमोहन मालवीय जी के लेखों को पढ़कर उनके हृदय में स्वदेशी तथा स्वधर्म के लिए चलाये गये स्वाधीनता भारत के क्रांतिकारी के नाम
आंदोलन के प्रति सहानुभूति के भाव पैदा हुए। सन् 1925 में गोवर्धन मठ (जगन्नाथपुरी) के शंकराचार्य स्वामी मधुसूदनतीर्थ जी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया। श्री शंकराचार्य धर्म प्रचार यात्रा के लिए निकले तथा जगह-जगह प्रवचनों में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने, अपने देश से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने को तत्पर होने का आह्वान किया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

11 रामप्रसाद बिस्मिल :- जन्म: 11 जुन 1897, जालंधर, मृत्युः 19 दिसम्बर 1927

ब्रह्मण्याधय कर्माणि संग त्यत्तफ्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेभ्यो: पद्मपत्रभिवांम्भसः।।

गीता का यह श्लोक अमर बलिदानी पं. रामप्रसाद जी “बिस्मिल” की आत्मक. था के आखिरी पृष्ठ से उद्घदूत है, जो उन्होंने फांसी से 03 दिन पहले पूर्ण कर, भोजन के एक डिब्बे में 28/12/1927 को छिपाकर क्रांतिकारी साथी शिव वर्मा जी के हाथों जेल से बाहर भिजवाई थी। इस एक श्लोक में उनके सारे जीवन-दर्शन का सार निहित है। इस धीर, वीर, योद्धा, कवि, शायर, लेखक, अनुवादक, प्रकाशक, संगठनकर्ता, योजनाकार, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, महान क्रांतिकारी का जन्म 11/06/1897, तदनुसार, ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी, शुक्रवार संवत 1954 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में पिता मुरलीधर एवं माता मूलमति देवी के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था। हवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ कर योग, व्यायाम में रुचि हो गई। इन्हीं दिनों भाई परमानंद जी ‘आर्य समाज’ से बहुत प्रभावित हुए। आपने 30 वर्ष के जीवन में अपनी सारी उपलब्धियों का श्रेय उस परमपिता परमेश्वर को देकर वे संवत 1984 पौष कृष्ण एकादशी, सफलता एकादशी, तदनुसार, 19/12/1927 को स्वतंत्रता का स्वप्न मन में संजोए, राम के चरणों में स्थित हो गये। वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां, हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है”। भारत के क्रांतिकारी के नाम

12 पंडित मदनमोहन मालवीय :- जन्म: 25 दिसंबर, 1861, इलाहाबाद मृत्युः 12 नवंबर 1946 पंडित मदनमोहन मालवीय का जन्म 25 दिसंबर, 1861 को इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के अहियापुरा में हुआ था। अब यह मोहल्ला मालवीय नगर के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। मालवीय जी को बचपन में कविता का बड़ा शौक था। उन्होंने 15-16 वर्ष की आयु में कवि ‘मकरन्द’ नाम से ख्याति प्राप्त कर ली थी। कांग्रेस के 1886 में कोलकत्ता अधिवेशन में मालवीय जी प्रथम बार राजनैतिक मंच पर पधारे थे। इसके बाद जीवनपर्यंत कांग्रेस से जुड़े रहे। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार पर उन्होंने केन्द्रीय धारा सभा में लगातार छ: घंटे तक ओजस्वी वाणी में ब्रिटिश क्रूरता के विरुद्ध आवाज उठाई। कांग्रेस द्वारा संचालित आंदोलनों में उन्होंने जेल यात्रा की। कई बार उन्होंने कांग्रेस के निर्णयों का खुलकर विरोध किया, लेकिन फिर भी कांग्रेस में वह सम्मानित एवं एक प्रतिष्ठित स्थान रखते थे। हिन्दुत्ववादी होने के कारण हिन्दु महासभा में भी उनका बड़ा सम्मान था। पंडित मदनमोहन मालवीय जी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि ‘बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय’ है। उन्होंने इसकी स्थापना 4 फरवरी सन् 1916 में की थी। 1919 से 1946 तक जीवनपर्यंत वे इसके कुलपति रहे।

13 नाना साहब पेशवा :- जन्म: 1824 नाना साहब ने अपने विश्वस्त साथियों से गुप्त मंत्रणा कर 31 मई, 1857 अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र सैनिक क्रांति का दिन निश्चित कर दिया। नाना साहब के गुप्तचरों द्वारा सैनिक छावनियों के भारतीय सिपाहियों को कमल का फूल और गांवों में आटे की चपाती क्रांति के संदेश के रूप में बांटी जाने लगीं। नाना साहब 400 क्रांतिकारियों के साथ साधुओं की टोली के रूप में तीर्थाटन के बहाने से सारे भारत में भ्रमण हेतु निकल पड़े। सब जगह अंग्रेजों के विरुद्ध एक साथ विद्रोह के लिए क्रांति का शंख फूंकने लगे। लेकिन अपरिहार्य कारणों से मेरठ के भारतीय सैनिकों ने ‘हर-हर महादेव’ के साथ क्रांति का सूत्रपात 10 मई को ही कर दिया। मेरठ से दिल्ली तक अंग्रेजी शासन को समाप्त कर बहादुरशाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया गया। इसके परिणामस्वरूप कानपुर के सैनिकों ने भी 4 जून को नाना साहब के नेतृत्व में अंग्रेजों शासन को उखाड़ फेंका। नाना साहब ने दया का भाव दिखाते हुए यूरोपियन लोगों को नावों द्वारा सुरक्षित इलाहाबाद पहुंचाने का प्रबंध कर दिया। अतरू नाना साहब ने मोरोपंत को अपने वेष में उत्तर की तरु (नेपाल) भेजकर अंग्रेजों को भ्रमित कर दिया। एवं स्वयं सौराष्ट्र की तरु जाकर जीवनपर्यंत भूमिगत रहे।

14 वासुदेव बलवंत फड़के :- जन्म: 4 नवंबर 1845 पुणे, मृत्युः 17 फरवरी 1883 वासुदेव बलवंत फड़के का जन्म 4 नवंबर, 1845 को पुणे में हुआ था। वासुदेव बलवंत फड़के ने रेलवे की सरकारी नौकरी छोड़ दी और ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने हेतु क्रांति की राह पकड़ ली। ‘काशी बाबा’ के छद्म नाम से विख्यात होकर रामोशी आदिम जाति के शूरवीरों की एक सेना गठित कर ली। 1874 में तोरणा महाराष्ट्र के किलों पर अपना अधिकार कर अल्याई सरकार की घोषणा कर दी। ब्रिटिश सरकार को खतरा लगने लगा। अंतर सरकार ने घोषणा करा दी कि जो व्यक्ति बलवंत फड़के को गिरफतार करा देगा या उसकी सूचना पुलिस को देगा उसे सरकार पचास हजार का इनाम देगी। अनेक अंग्रेज हताहत हुए। ब्रिटिश शासन में पहली बार कर्फ्यू की घोषणा करनी पड़ी। अंत में एक बार सोते हुए 20 जुलाई, 1879 को बीजापुर जिले के देस्नवदनी गांव से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 17 फरवरी 1883 को आदन में उनको मृत्यु हो गई।

15 तात्या टोपे :- जन्म: 16 फरवरी 1814 पुणे, मृत्युः 18 अप्रैल 1859 तात्या टोपे का जन्म पुणे (महाराष्ट्र) में 1814 में हुआ था। तात्या टोपे का बचपन का नाम पाण्डु यावलेकर था। बाजीराव पेशवा ने इन्हें सम्मानार्थ एक टोप भेंट किया तभी से यह तात्या टोपे कहलाने लगे। सन् 1857 ई. के स्वतास्थान में बात्या टोपे ने नाना साहब के साथ मिलकर अंग्रेजों के दिये। नाना साहब की पराजय के बाद भी तात्या टोपे ने हार न नानी। इन्होंने नए सिरे से सैनिक संगठन कर अंग्रेजों से टक्कर ली। भारतीय बाजाओं को गारों के कारण अंग्रेजों को हराने हेतु गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिय। सत्या के किसी स्थापन पर छिपे होने की सूचना मिलते ही फौज जैसे का घेरा डालतो वह फौज की आंखों में धूल झोंक कर गायब हो जाते। यह आया, अरे! चला गया, अभी तो यहीं था, फिर कहां गया? तात्या एक झोंके की तरह आ कर अपना वार करता और गायब हो जाता। ब्रिटिश अधिकारी विस्मय से देखते ही रह जाते। अंग्रेजों ने नारायण राव को ही तात्या समझकर 18 अप्रैल, 1859 को जल्दबाजी में फांसी दे दी। तात्या टोपे बच निकले और अपने जीवन के अंत तक पकड़े नहीं जा सके। 1857 में स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी सत्ता सबसे अधिक तात्या टोपे से भयभीत रही। अतरू इन्हें इस संग्राम का “सर्वोच्च योद्धा” कहा जा सकता है।

विष्णु गणेश पिंगले :- जन्मः जनवरी 1888 महाराष्ट्र, मृत्युः 17 नवंबर विष्णु गणेश पिंगले का जन्म महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण परिवार में जनवरी सन् 1888 में हुआ था। विष्णु गणेश ने अमेरिका के सैतले विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की स्नातक की डिग्री प्राप्त की। लेकिन इस योग्यता के बाद भी उन्होंने धन एवं वैभव को तिलांजलि दे दी। वे भारत को स्वतंत्र कराने हेतु अमेरिका में गदर पार्टी में शामिल हो गये। अमेरिका से भारत को स्वतंत्र कराने हेतु आ रहे 8000 भारतीयों के दल के साथ वे भारत पहुंच गये। भारत में रास बिहारी बोस ने 21 फरवरी, 1915 को समस्त भारत की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों में क्रांति की अलख जगाई। इसी कार्य से वे मेरठ छावनी में गये थे। 23 मार्च, 1915 को मेरठ छावनी में एक रिसाले के जमादार नादि. रखान ने विष्णु गणेश पिंगले को धोखे से गिरफ्तार करा दिया। पिंगले के विरुद्ध “लाहौर षडयंत्र केस’ में मुकदमा चलाया गया। विष्णु गणेश पिंगले को उनके छः अन्य सिख साथियों के साथ 17 नवंबर को लाहौर केंद्रीय कारागार में
फांसी पर लटका दिया। फांसी से पूर्व उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की, “हे भगवान !कृजिस पवित्र कार्य के लिए हम अपने-अपने जीवन की आहुतियां दे रहे हैं, उनकी रक्षा का भार तुम पर है। भारत स्वाधीन हो, यही मेरी अंतिम इच्छा है। ” भारत के क्रांतिकारी के नाम

महारानी तपस्विनी :- जन्म: 1836 वाराणसी, मृत्युः 1907 महारानी तपस्विनी का जन्म लगभग 1836 में वाराणसी में हुआ था। वह महारानी लक्ष्मीबाई की भतीजी थी। इनका वास्तविक नाम सुनन्दा था। पिता पेशवा नारायण राव के निधन के बाद अंग्रेजों ने सुनन्द को गिरफ्तार कर त्रिचनापल्ली के किले में कैद कर लिया। सुनन्दा मुक्त होते ही सीतापुर के पास
नैमिषारण्य तीर्थ पहुंची। वहीं उन्होंने संत गौरी शंकार से दीक्षा लेकर वैरागय धारण कर लिया और गुप्त रूप से अंग्रेजी शासन के विनाश के कार्यों में जुट गई। ‘माता तपस्विनी’ के नाम से इनकी ख्याति सर्वत्र फैल गई। इन्होंने नाना साहब से संपर्क स्थापित किया तथा 1857 में सैनिक विद्रोह हेतु साधु व संतों की टोली का गठन किया। वह देश की प्रमुख छावनियों में धार्मिक अनुष्ठानों के बहाने प्रवेश करने लगी और निश्चित तिथि को ब्रिटिश सत्ता उखाड़ फेंकेने का संकल्प दिलाने लगीं। दुर्भाग्यवश सशस्त्र क्रांति असफल हो गई। बड़ी संख्या में ब्रिटिश सरकार द्वारा साधु व संतों का कत्लेआम किया गया। माता तपस्विनी बचकर नेपाल की ओर कूचकर गई। नेपाल में जर्मन क्रुप्स’ कंपनी के नाम से बंदूक बनाने का कारखाना खोला। इसके लिए लोकमान्य तिलक ने महाराष्ट्र से एक युवक श्रीमान खडिलकर को उनके सहयोग के लिए भेज दिया। भेद खुलने पर कारखाने में छापा पड़ गया। खडिलकर को गिरफ्तार कर लिया गया। घोर यातनाओं के बाद भी इन्होंने तपस्विनी के किसी भेद को नहीं खोला। अतरू वह स्वयं कोलकाता लौट आई और महाकाली पाठशाला के माध्यम से छात्रों में राष्ट्रीय भावना का संचार करने लगीं। 1905 में बंग-भंग
आंदोलन के अवसर पर उन्होंने साधु संतों में पुनरू विद्रोह का मंत्र फूंका। गुप्त संदेशों को देश के एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचाने के लिए माता तपस्विनी सशक्त माध्यम बनीं। महारानी तपस्विनी 1907 में पंचतत्व में विलीन हो गई। भारत के क्रांतिकारी के नाम

वीरेंद्रनाथ चटोपाध्याय :- जन्म: 31 अक्तूबर, 1880 ढाका वीरेंन्द्रनाथ चटोपाध्याय का जन्म 31 अक्तूबर, 1880 को ढाका में हुआ था। आप उच्चशिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड चले गये। इंग्लैंड में श्यामजी कृष्ण वर्मा व मैडम कामा के संपर्क में आये। इनके संपर्क में आकर चटापोध्याय ने भारत की स्वतंत्रता को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इन्हें हिंदी, उर्दू, अरबी व फ्रेंच भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। अतरू इन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रचार का कार्य स्वयं संभाला। भारतीय स्वतंत्रता की वाणी से ओतप्रोत ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ पत्र के प्रकाशन का दायित्व इन्हीं ने संभाला। 1907 में जर्मनी के स्टूडगार्ड शहर में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में वीरेन्द्र चटापोध्याय के सहयोग से ही मैडम कामा ने प्रथम बार राष्ट्रीय तिरंगा झंडा फहराया। विभिन्न यूरोपीय देशों में मैडम कामा के साथ क्रांतिकारियों को हथियार व प्रचार सामग्री भेजने का कार्य किया। पेरिस से ‘वन्देमातरम’ और बर्लिन से ‘तलवार’ पत्रों में अपने लेखों के माध्यम से भारतीयों में क्रांति की ज्वाला को
उग्र रूप प्रदान किया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

चिदम्बरम पिल्लै :- जन्म: 1872 तमिलनाडु चिदम्बरम पिल्ले का जन्म 1872 में तिरुनलवैली (तमिलनाडु) में हुआ था। दक्षिण भारत की तूतीकोरिन नगर में चिदम्बरम पिल्ले प्रसिद्ध वकील थे। अंग्रेजों द्वारा जहाजों में भारतीयों को जानवरों की तरह दूंस-ठूंस कर भरकर ले जाना और अपार धनराशि कमाना उन्हें बहुत बुरा लगा। अतरू उन्होंने ब्रिटिश इंडिया
नेवीगेशन कंपनी के मुकाबले में स्वदेशी स्टीम नेवीगेशन कंपनी स्थापित की। इससे अंग्रेजों के व्यापार को चोट पहुंची। अंग्रेज मैजिस्ट्रेट मिस्टर वालर ने उन्हें धमकी दी। चिदम्बरम पिल्ले ने तूतीकोरिन में एक कारखाने के मजदूरों की हड़ताल करा दी। इससे अंग्रेज उनके दुश्मन बन गये। लेकिन चिदम्बरम पिल्ले ने हार न मानी। अब वह अंग्रेजी शासन पर सीधी चोट करने लगे। अपने भाषण में वह जनता को अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हेतु ललकारने लगे। इस कार्य में सुब्रमण्यम शिव एवं पद्मनाथ आयंगर ने भी उनका साथ दिया। अंग्रेजों की व्यापार नगरी तूतिकोरिन में जनता अंग्रेजों के विरुद्ध होने लगी। अंग्रेजी शासन की नींव डांवाडोल होने लगी। चिदमबरम पिल्लै को जुलाई, 1908 में चालीस वर्ष की कठोर कारावास की सजा देकर जेल में डाल दिया गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

यतीन्द्रनाथ दास :- जन्म: 27 अक्तूबर 1904 कोलकाता, मृत्युः 13 सितंबर 1929 यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्तूबर, 1904 को कोलकाता में हुआ था। वह केवल 16 वर्ष की आयु में 1921 में असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। चार दिन जेल में रहकर घर लौटे तो पिता की फटकार सुन कर घर से निकल गये। आंदोलन में पुनरू जेल काटी। बीमार अवस्था में जेल से छूटने पर पिता इन्हें घर लौटा लाये। इसके बाद वह क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये। शचीन्द्र नाथ सान्याल ने उन्हें बम बनाना सिखाया। 1928 में उन्हें पुनः गिरफतार कर
लिया। अबकी बार जेल में सुपरिटेंडेट के गलत व्यवहार के कारण इनकी उससे हाथापाई हो गई। यतीन्द्रनाथ की बेरहमी से पिटाई कराई गई। यतीन्द्रनाथ ने जेल में भूख हड़ताल कर दी। यतीन्द्रनाथ भूख हड़ताल के पक्ष में नहीं थे। यतीन्द्रनाथ ने कहा, “मैं अनशन करूंगा। लेकिन मेरा अनशन कुछ शर्तों के साथ होगा। मुझे कोई अनशन तोड़ने के लिए नही कहेगा। मेरा अनशन का तात्पर्य होगा- विजय या मौत।” यतीन्द्रनाथ ने 13 जुलाई, 1929 को अनशन आरंभ किया। 20 दिन बाद हालत बिगड़ने लगी। जबरदस्ती दूध नाक द्वारा चढ़ाया गया। लेकिन जब दूध सांस की नली में चला गया तो अवस्था और बिगड़ गई। 63 दिन बाद 13 सितंबर, 1929 को इस क्रांतिवीर ने शहादत प्राप्त कर ली। भारत के क्रांतिकारी के नाम

माखनलाल चतुर्वेदी :- जन्म: 4 अप्रैल 1889 मध्य प्रदेश, मृत्युः 30 जनवरी 1968 माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जनपद के बावई नामक ग्राम में हुआ था। इनके द्वारा संपत्ति ‘कर्मवीर’ तथा ‘प्रताप’ साप्ताहिकों में राष्ट्र भावनाओं से भरे लेखों एवं ओजस्वी वाणी के कारण इन्हें राजद्रोह के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी कलम से काव्य में देश पर बलिदान की भावना का जो स्वर निनादित किया था वही स्वर आज भी नवयुवकों की प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘पुष्प की अभिलाषा’ ने देश पर बलिदान होने की परंपरा को उत्सर्ग-पर्व बना दिया। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा। माखनलाल चतुर्वेदी ने लगभग 6 वर्ष से भी अधिक सत्रोत कठोर कारावास भोगा। माखनलाल चतुर्वेदी ने सिद्ध कर दिया कि यदि एक क्रांतिवीर अपने बलिदान से युवा पीढ़ी में क्रांतिचेतना उत्पन्न कर सकता है तो एक कवि या लेखक भी अपनी कलम से हजारों कायरों के हृदयों में साहस फूंक सकता है। 30 जनवरी, 1968 को यह सितारा भारतीय गगन से सदा के लिए लुप्त हो गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

बहन सत्यवती :- जन्म: 26 जनवरी, 1906 पंजाब, मृत्युः 21 अक्तुबर, 1945 बहन सत्यवती का जन्म 26 जनवरी, 1906 को पंजाब में जालंधर जिले के गांव में हुआ था। वे स्वामी श्रद्धानन्द की धेवती वेदवती की पुत्री थीं। उनकी कार्यक्षेत्र दिल्ली रहा। सत्यवती ने 1936-37 में श्रमिक आंदोलन को नई दिशा दी। उनके जोशीले भाषणों से ब्रिटिश सरकार घबरा उठी। उनका जहां भी भाषण होता उनके वहां पहुंचने पर प्रतिबंध लगा दिया जाता। लेकिन फिर भी वे पुलिस को चकमा देकर वहां पहुंच जाती थीं। नमक सत्याग्रह के समय 
दिल्ली के कश्मीरी गेट रजिस्ट्रार कार्यालय पर उन्होंने महिलाओं के जुलूस का नेतृत्व किया। सत्यवती को गिरफ्तार कर लिया गया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए उनके अच्छे आचरण का आश्वासन एवं 5000 रुपये का मुचलका मांगा। सत्यवती ने ऐसा करने से मना कर दिया और छः महीने के कारावास की सजा काटी। अतरू उन्हें टी.बी. अस्पताल में दाखिल कर दिया गया। उनकी अंतिम इच्छा थी कि देश के शहीद बच्चों की याद में उनके जीवन चरित्र की एक पुस्तक तैयार हो। इस इच्छा को सन् 2000 में इस पुस्तक के लेखक ने ‘आजादी के अंकुर’ लिख कर पूरा किया। आखिर दिल्ली की वह दिव्य ज्योति 21 अक्तूबर, 1945 को अखंड ज्योति में विलीन हो गई। नजरबंदी अवस्था में दिल्ली के एक टी.बी. अस्पताल में उनका निधन हो गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

अवधबिहारी :- जन्म: 14 नवंबर 1889 दिल्ली, मृत्युः 8 मई 1915, दिल्ली अवधबिहारी का जन्म 14 नवंबर, 1889 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता श्री गोविंदलाल एक सामान्य शिक्षक थे। दिल्ली के प्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद इनके गुरु थे। मास्टर अमीरचंद ने भारत माता को दासता के चुंगल से मुक्त कराने की भावना उनकी रग-रग में प्रवाहित कर दी। अवधबिहारी ने लाहौर के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज से बी.टी. की परीक्षा में सर्वाधिक अंक लेकर “स्वर्ण पदक” सम्मान प्राप्त किया। 23 दिसंबर, 1912 को चांदनी चौक दिल्ली में हिंदुस्तान के वायसराय की शोभा-यात्र पर बम फेंकने वालों के दल में वह भी शामिल थे। अवधबिहारी, बसंतकुमार विश्वास व बालमुकुंद तीनों क्रांतिवीरों ने बुर्के में मुस्लिम महिला का वेश धारण किया। चांदनी चौक के पंजाब नेशनल बैंक की छत पर अनय मुस्लिम महिलाओं में मिल कर बैठ गये। तीनों के हाथों में फूल मालाएं थीं। बम धमाका करते ही उससे उठने वाले धुएं के बवंडर व कोलाहल का लाभ उठाते हुए सभी क्रांतिवीर बच निकले। दिल्ली बम कांड के बाद अवधबिहारी पुनरू लाहौर आ गये। बंगाल से लाहौर स्थानांतरित अंग्रेज अधिकारी मिस्टर गोर्डन बहुत क्रूर और अत्याचारी था। अवधबिहारी ने 17 मई, 1913 को उसकी हत्या का अफल प्रयास किया। 19 फरवरी 1914 को उन्हें गिरफतार कर लिया गया। दिनांक 8 मई, 1915 को अवधबिहारी ने दिल्ली के कारागार (आज जहां मौलाना आजाद मेडिकल है) में भाई बाल मुकुंद एवं अपने गुरु मास्टर अमीरचंद के साथ फांसी पर झूल कर देश पर बलिदान होने का गौरव प्राप्त किया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

अमर शहीद राजगुरू :- जन्म: 1908 महाराष्ट्र, मृत्युः 23 मार्च, 1931 राजगुरु का जन्म सन् 1908 में खेड़, पुणे महाराष्ट्र में हुआ था। वे बचपन से ही साहसी थे। देश पर मर मिटने के लिये हर समय तैयार रहते थे। राजगुरु, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि सभी क्रांतिवीर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के सदस्य थे। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरोध जुलूस में राजगुरु भी शामिल थे। लालजी का लाठी प्रहार से निधन हो. जाने पर राजगुरु ने शपथ ली लालाजी के हत्यारे को पहली गोली मैं मारूंगा’,
सांडर्स पर पहली गोली राजगुरु ने ही चलाई। सांडर्स की हत्या के बाद भगतसिंह ने यूरोपियन वेष धारण किया। महिला क्रांतिकारी दुर्गा भाभी भगतसिंह की पत्नी बनी एवं राजगुरु नौकर बने। सुखदेव, भगतसिंह व राजगुरु तीनों को नियम विरुद्ध 23 मार्च, 1931 को सायंकाल फांसी दे दी गई। भारत के क्रांतिकारी के नाम

प्रीतिलता वद्देदार :- जन्म: 5 मई 1911 बंगलादेश प्रीतिलता वद्देदार का जन्म 5 मई 1911 में गोलपाड़ा, चटगांव (बंगलादेश) में हुआ था। इनके हृदय में देशभक्ति की भावना बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। जलियांवाला बाग हत्याकांड की घटना ने प्रीतिलता के अंदर अंग्रेजों ‘ब्रिटिश सम्राट’ के प्रति वफादारी की शपथ लेते समय वे ‘ब्रिटिश सम्राट’ शब्द के प्रति नफरत का बीजारोपण कर दिया। इसी कारण स्कूल में बच्चों के साथ के स्थान पर ‘भारत माता’ शब्द का प्रयोग करने लगीं। प्रीतिलता ने कोलकाता में अध्ययन करते हुए ‘छात्र संघ’ एवं ‘दीपाली संघ’ दो क्रांतिकारी संगठनों की सदस्यता ग्रहण कर ली। यहीं उन्होंने तलवार, लाठी, बल्लम तथा पिस्टल चलाने का अभ्यास कर लिया। बाद में उन्होंने अध्यापिका की नौकरी कर ली। 12 जून, 1932 को सावित्री देवी के मकान में प्रीतिलता, सूर्य सेन व अन्य साथियों को पुलिस ने घेर लिया। प्रीतिलता बड़े साहस के साथ फायरिंग करते हुए स्वयं बच निकली और सूर्यसेन को भी सुरक्षित बचा ले गई। चटगांव शहर में पहारताली पर यूरोपियनक्लब में रात्रि को अंग्रेज अधिकारी क्रांतिवीरों पर जुल्म ढाने की योजना बनाते थे। 24 सितंबर, 1932 को वह पुलिस के वेश में अपने दल के साथ उस क्लब पर पहुंच गई। वहां अंग्रेज अधिकारियों पर दनादन गोलियों की वर्षा कर दी। वहां मौजूद सुरक्षा अधिकारियों ने तुरंत इन पर जवाब में गोलियां चलाई। प्रीतिलता की कलाई गोलियों से छलनी हो गई। उसे सुरक्षा अधिकारियों ने घेर लिया। जब उसने देखा कि अब गिरफ्तारी से बचने का कोई उपाय नहीं है तो सायनाइड जुबान पर रखकर आत्म-बलिदान कर शहादत प्राप्त कर ली। भारत के क्रांतिकारी के नाम

दुर्गा भाभी :- जन्म: 7 अक्तूबर 1907, मृत्युः 15 अक्तूबर 1999 दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्तूबर, 1907 को हुआ था। दुर्गा भाभी भगवती चरण वोहरा की धर्मपत्नी थी। दुर्गा भाभी ने आर्थिक संकट से जूझते हुए राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व से कभी समझौता नहीं किया। सदैव “राष्ट्र सर्वोपरि ” की भावना से ब्रिटिश सत्ता से जूझती रहीं। करतार सिंह सराभा की फांसी के बाद उनके चित्र का अनावरण करना था। चित्र पर पड़े खद्दर के सफेद कपड़े को अपनी उंगली चीरकर अपने रक्त से उस पर रक्तम् बार्डर बना डाला। चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह व अन्य क्रांतिवीरों को बम व पिस्तौले ठिकानों पर पहुंचाने का कार्य दुर्गा भाभी करती थीं। इनके तीन वर्षीय पुत्र शचि की ममता भी इनके मार्ग को नहीं रोक सकी। मुंबई में एक ‘एक्शन’ के समय अपने पुत्र को क्रांतिवीर गणेश दामोदर सावरकर को सौंप आई। काले वस्त्रों में लंबे वालों के कारण सरदार का वेश धारण किया एवं लेमिंटन रोड पर एक सार्जेन्ट को गोली का निशाना बना सुरक्षित भाग निकलीं। पुलिस काले वस्त्रों के सरदार को तलाशती रही। सांडर्स वध के बाद भगतसिंह की पत्नी बन अंग्रेज पति-पत्नी के जोड़े के रूप में पुलिस की आंखों में धूल झोंक कर भगतसिंह को सुरक्षित कोलकाता पहुंचाने का जोखिम भरा कार्य किया। भगतसिंह को जेल से छुड़ाने हेतु बम परीक्षण करते समय इनके पति भगवती चरण शहीद हो गये। वे तब भी पथ से न विचलित हुई और न ही साहस खोया। आजादी के बाद यह क्रांतिमूर्ति सरकारी उपेक्षा का शिकार रहते हुए 15 अक्तूबर, 1999
में अमरत्व को प्राप्त हुई। भारत के क्रांतिकारी के नाम

हेमू कालाणी :- जन्म: 23 मार्च, 1923, मृत्युः 21 जनवरी, 1943 हेमू कालाणी का जन्म 23 मार्च, 1923 को पुरा सक्खर (सिंध, पाक.) में पेसूमल कालाणी के पुत्र के रूप में हुआ था। सन् 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ों’ नारे को लेकर इस 19 वर्ष के बालक की टोली ने सिंध शहर में तहलका मचा दिया। इसे देख कर शहर के बालक, बूढ़े, जवान सभी जोश में आ गये। सैनिक छावनी के भारतीय सैनिकों ने भी बगावत कर दी। अंग्रेजों को यूरोपियन फौज बुलानी पड़ी। हेमू को पता चला कि पास में जंगल के पुल से जो ट्रेन गुजरने वाली है उसमें यूरोपियन फौज और गोला बारूद भरा है। हेमू ने टोली को इकठ्ठा करके ट्रेन को पुल से गिराने हेतु पटरी के नट खोलने आरंभ किये ही थे कि पुलिस ने देख लिया। उसने अपने साथियों को भगा दिया और स्वयं पुलिस से उलझा रहा और पकड़ा गया। साथियों का नाम बताने हेतु उसे बहुत यातनाएं दी गई लेकिन हेमू ने कोई नाम नहीं बताया। अंग्रेज कमांडर रिचर्डसन ने उसे डराने के विविध प्रयास किये। हेमू सभी यातनाएं सहता गया पर किसी का नाम जुबान पर नहीं लाया। आखिर क्रूर ब्रिटिश हुकूमत ने अबोध बालक को फांसी की सजा सुना दी। साथियों के नाम बताने के लिए उसे फांसी से बचाने का प्रलोभन दिया गया लेकिन
हेमू अपने निश्चय पर ही अडिग रहा। अंत में 21 जनवरी, 1943 को वह फांसी का फंदा चूम कर बलिदान हो गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

रामास्वामी :- जन्म: 1929 कर्नाटक रामास्वामी का जन्म सन् 1929 में बनवारा, हासन कर्नाटक में हुआ था। पहले यह स्थान मैसूर राज्य में थी। 1 नवंबर, 1973 के बाद इसे कर्नाटक नाम दिया गया। रामास्वामी हाई स्कूल का छात्र था। देश की आजादी की लड़ाई अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी जा रही थी। लेकिन अलग-अलग राज्यों में भी राजतंत्र केस विरुद्ध प्रजातंत्र की स्थापना हेतु संघर्ष चल रहा था। वहां की प्रजा भी राजाओं के निरंकुश शासन से मुक्त होकर स्वराज्य स्थापित करना चाहती थी। इसी कारण मैसूर में राजतंत्र के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था। वहां की प्रजा भी राजाओं के निरंकुश शासन से मुक्त होकर स्वराज्य स्थापित करना चाहती थी। इसी कारण मैसूर में राजतंत्र के विरुद्ध आंदोलन चल रहा था। सितंबर, 1947 में स्वशासन स्थापित करने हेतु हासन में एक जुलूस निकाला गया। रामास्वामी भी अपने हृदय की भावनाओं को न रोक सका। वह भी जुलूस में शामिल होकर नारे लगाने लगा। पुलिस ने उन्हें वापस जाने हेतु चेतावनी दी रामास्वामी को सीने में गोली लगी। मातृ वेदी पर एक पुष्प और भेंट हो गया। रामास्वामी केवल अठारह वर्ष की आयु में ही देश पर बलिदान हो गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

भाई परमानंद :- जन्म: 4 नवंबर, 1876, मृत्युः 8 दिसंबर 1947 भाई परमानंद का जन्म 4 नवंबर, 1876 को झेलम जिले के रियाला गांव में भाई ताराचंद के पुत्र के रूप में हुआ था। वे सिखों के नवें गुरु तेगबहादुर के साथ बलिदान देने वाले भाई मतिदास के वंशज थे। बचपन से ही आर्य समाज भाई परमानंद की रग-रग में बसा था। अत: वह आर्य समाज के प्रचार हेतु अफ्रीका गये। यहां गांधी जी पर इनकी सादगी का बहुत प्रभाव पड़ा। इसके बाद वह इंग्लैंड पहुंचे। यहां उनका संपर्क प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुआ। भारत लौटकर उन्होंने अंग्रेजों के काले कारनामों पर ‘भारत का इतिहास’ लिखा जिससे भारतीय क्रांतिवीरों को बड़ी प्रेरणा मिली। इनके विचारों ने सरकार को आतंकित कर दिया। अतः 1910 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में उन्हें देश निकाला दे दिया गया। आपने अमेरिका जाकर सेनफ्रांसिस्कों में ‘औषध विज्ञान’ पर उच्च शिक्षा प्राप्त की। डी.ए.वी. कालेज के विद्यार्थी, भगत सिंह, भगवती चरण, सुखदेव आदि भाई परमानंद से प्रेरणा लेते थे। भाई परमानंद को 1915 में लाहौर षडयंत्र केस में फांसी की सजा हो गई। बाद में उसे आजीवन कारावास में बदला गया। आपको अंडमान की जेल में कठोर यातनाएं दी गई। सी.एफ. ऐंड्रयूज एवं मालवीय जी के प्रयासों से आपको 1919 में जेल से मुक्ति मिली। इसके बाद आपने पंजाबी विद्यापीठ स्थापित की। भारत के क्रांतिकारी के नाम

विपिनचंद्र पाल :- जन्म: 7 नवंबर 1858 बांगलादेश, मृत्युः 20 मई 1932 भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में लाल (लाला लाजपत राय), बाल (बाल गंगाधर तिलक), पाल (बिपिन चंद्र पाल) की तिकड़ी का महत्वपूर्ण स्थान है, जिन्होंने बंगाल विभाजन के समय अपने क्रांतिकारी विचारों से स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। इन्होंने पूर्व समय से चली आ रही अनुनय विनय की नीति का विरोध किया तथा ब्रिटिश सरकार से स्पष्ट रूप से पूर्ण स्वराज्य या राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की। लाल बाल पाल की इस तिकड़ी के एक महत्वपूर्ण सदस्य थे विपिन चंद्र पाल, जिनकी ’20मई’ पुण्यतिथि है। उन्होंने कोलकाता के सार्वजनिक पुस्तकालय में लाइब्रेरियन के रूप में भी कार्य किया। उसी दौरान वे शिवनाथ शास्त्री, एसएन बनर्जी और वी. के. गोस्वामी जैसे अनेक राजनीतिक नेताओं के सानिध्य में आए जिसके परिणाम स्वरूप उन्होंने शिक्षण कार्य छोड़कर राजनीति में आने का संकल्प लिया। वे लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक तथा महर्षि अरविंद के दर्शन, कार्य तथा आध्यात्मिक विचारों से अत्यंत प्रभावित थे। उन्हीं का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अपना जीवन स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में अर्पित करने का निर्णय लिया। बौद्धिक और वैचारिक क्षमता के धनी विपिन चंद्र पाल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी विचारों के जनक के रूप में जाने जाते हैं। 1998 में वे तुलनात्मक विचारधारा का अध्ययन करने इंग्लैंड गए। एक वर्ष बाद भारत वापस आकर स्थानीय भारतीयों के बीच में स्वराज के विचार की भावना का प्रचार किया तथा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की रूपरेखा तैयार की। स्वतंत्रता संग्राम के
इस सेनानी ने भारत की स्वतंत्रता का स्वप्न आंखों में संजोए 20 मई 1932 को सदैव के लिए आंखें मूंद ली। भारत के क्रांतिकारी के नाम

चम्पकरमण पिल्लै :- जन्म: 15 सितंबर, 1891 तिरुअनन्तपुरम, मृत्युः 26 मई, 1934 चम्पकरमण पिल्लै का जन्म 15 सितंबर, 1891 को तिरुअनन्तपुरम में हुआ था। चम्पकरमण पिल्लै ने भारतीय स्वतंत्रता की ज्योति को विदेशों में जाकर प्रज्जवलित किये रखा। उन्होंने इटली जाकर 12 भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। वे जर्मनी में सलाहकार इंजीनियर बने। वे ज्यूरिख में ‘अंतर्राष्ट्रीय भारत समर्थन समिति के अध्यक्ष थे। चम्पकरमण पिल्ले ने 1914 में जर्मनी में ‘इंडियन नेशनल पार्टी’ की स्थापना की। लाला हरदयाल, मो. बरकतुल्ला, तारखनाथ दास व वीरेन्द्र चटोपाध्याय आदि क्रांतिवीर इस पार्टी के सदस्य थे। इस पार्टी की योजना थी कि थाईलैंड से बर्मा में भारतीय सैनिकों की टोलियां भेजी जाएं और वर्मा पर अधिकार किया जाये। हिटलर द्वारा भारत के बारे में गलत टिप्पणी का इन्होंने विरोध किया। संभवत: इसी कारण कुछ नाज़ी लोगों ने बर्लिन में 26 मई, 1934 को उनकी हत्या कर दी और उनकी संपत्ति हड़प ली। उनकी पत्नी श्रीमती लक्ष्मीबाई ने इस महान स्वतंत्रता सेनानी की अस्थियों को संभाल कर रखा। 32 वर्ष बाद यम्पकरमण पिल्ले की अंतिम इच्छानुसार स्वतंत्र भारत के प्रथम स्वदेशी सैनिक पोत द्वारा उन अस्थियों को 1966 में उनकी जन्मभूमि के पास समुद्र में प्रवाहित किया गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

कु. जयवती संघवी :- जन्म: 1924 गुजरात कु. जयवती संघवी का जन्म सन् 1924 में अहमदाबाद गुजरात में हुआ था। जयवती ने छात्र जीवन से ही भारत की स्वतंत्रता हेतु विविध आंदोलनों में भाग लेना आरंभ कर दिया। अगस्त 1942 में अंग्रेजों ! भारत छोड़ो’ आंदोलन की घोषणा होते ही सारे नेता गिरफ्तार कर लिये गये। इस समय स्कूल और कालेजों के छात्रों ने इस आंदोलन को और अधिक तीव्रता प्रदान की। जयवती संघवी ने स्कूल व कालेजों के बंद होने के बाद भी छात्रों को एकजुट किये रखा। उन्होंने जगह-जगह धरने-प्रदर्शन के आयोजनों से छात्रों में चेतना जाग्रत की। 6 अप्रैल, 1943 को विभिन्न स्कूल एवं कॉलेजों के छात्र की एक विशाल सभा का आयोजन किया गया। उस जुलूस में संघवी ने छात्रों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आजादी मिलने तक निरंतर संघर्ष जारी रखने हेतु ललकारा। जलसे के बाद तिरंगा ध्वज हाथ में थामे एक जुलूस का नेतृत्व करती हुई निकल पड़ीं। जुलूस को रास्ते में जनता का पूरा पुलिस ने अश्रुगैस के गोले समर्थन मिला। छोड़े। जयवती संघवी गैस के धुएं में फंस गई और दम घुटने से उनका वहीं निधन हो गया। भारत के क्रांतिकारी के नाम

जतिन्द्रनाथ मुखर्जी (बाघा जतिन) :- जन्म: 27 अक्तूबर 1879 बंगाल, मृत्युः 13 सितंबर 1929 जतिन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म 27 अक्तूबर, 1879 को बंगाल के कुश्तिया नगर में हुआ था। जतिन का शरीर सुदृढ़ व सुडौल था जैसे इस्पात में ढाला गया हो। बचपन में ही उन्होंने मल्ल युद्ध में बाघ को मार डाला था। तभी से वे बाघा जतिन कहलाने लगे। महान क्रांतिकारी अरविंद घोष और यतीन्द्र नाथ बैनर्जी से प्रेरणा पा उन्होंने ‘बांधव समिति का गठन किया। 1910 में इनके इस दल ने डी.एस.पी. शमसुल आलम का वध कर दिया। बाघा जतिन ने कोलकाता की हथियारों का व्यापार करने वाली रोडा कंपनी के हथियारों की खेप चालाकी से गायब कर दी। अनेक बार महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें करने पर अकेले जतिन ने पांच-पांच अंग्रेजों को पछाड़ा। रास बिहारी बोस ने 21 फरवरी, 1915 को सारे देश में एक साथ सैनिक क्रांति एवं जन-विप्लव की योजना बनाई थी। उसी के माध्यम से धन व शस्त्रादी जर्मनी से भारत आने लगे। पुलिस जतिन की खोज में जुट गई। हथियारों से लदे दो जहाज ‘मैवरिक’ एवं ‘हैनरी एस’ भारत आ रहे थे। जतिन और उनके साथियों ने उनसे शस्त्रों की खेप प्राप्त करनी थी। बालासोर के जंगल में जतिन और उनके साथियों को पुलिस ने घेर लिया। दोनों और से खूब गोली चली। अंग्रेजों की ओर से क्लिवी, टोगार्ट और वर्ड आदि प्रमुख अधिकारी इस अभियान में जुटे थे। जतिन घायल अवस्था में पकड़े गये। 13 सितंबर, 1929 को उन्होंने अस्पताल में शहादत प्राप्त की। भारत के क्रांतिकारी के नाम

गणेश शंकर विद्यार्थी :- जन्म: 26 अक्तूबर 1890 इलाहबाद, मृत्युः 25 मार्च, 1931 कानपुर
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी का योगदान अजर-अमर है। उन्होंने अपनी क्रांतिकारी लेखनी से अंग्रेजों की नींद तो उड़ाई ही साथ ही गांधी जी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों का समान रूप से समर्थन किया। वह चुनिंदा ऐसे पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कलम और धारदार लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ी थी। साल 1916 में गणेश शंकर विद्यार्थी लखनऊ में महात्मा गांधी के संपर्क में आए। वह गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन से काफी प्रभावित थे और वे आज़ादी के आंदोलन से जुड़ गए। 1917-18 में गृह आंदोलन में उन्होंने आगे आकर नेतृत्व किया। उन्होंने कानपुर में टेक्सटाइल वर्कर्स की पहली हड़ताल का भी नेतृत्व किया। 1920 में उन्होंने दैनिक प्रताप के दैनिक संस्करण की शुरुआत की। एक संपादकीय में उन्होंने रायबरेली के खेतिहर मजदूर की आवाज़ का समर्थन किया जिसके बाद उन्हें दो साल की कैद की सजा दी गई। दो साल बाद साल 1922 में जेल से रिहा होने के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी को प्रोविसियल पोलिटिकल कांफ्रेंस का प्रेसिडेंट बनाया गया। अंग्रेजों के खिलाफ भाषण देने के चलते फिर से दो साल के लिए जेल भेज दिया गया। उसके बावजूद उनके जज्बे को अंग्रेजी हुकूमत कम नहीं कर पायी। भारत के क्रांतिकारी के नाम

गीता उपदेश

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥

सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ. में तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूंगा, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

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My name is Sonu Patel i am from india i like write on spritual topic

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